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आठवाँ परिच्छेद
कुबेरदत्त की नीचता मध्याह्न के समय समुद्र में कतार बाँधे जहाज चले जा रहे थे । समुद्र तरङ्गों से नृत्य कर रहा था । सदैव पानी के भीतर रहने वाले जल-जंतु सूर्य किरणों की | गर्मी लेने के लिए पानी की सतह से बाहिर अपनी पीठ निकालकर तैर रहे थे । जहाजों पर बैठे हुए यात्री अनेक सङ्कल्प-विकल्पों में निमग्न थे । काव्य-प्रेमी समुद्र की रचना पर पद्य बनाने के प्रयत्न में थे । साहसी वीर योद्धा समुद्र की तरंगों को देखकर अपने वीर हृदय को प्रोत्साहित कर रहे थे । तत्त्व-ज्ञानी लोग तरंगों की चञ्चलता के साथ इस संसार की चञ्चलता की तुलना कर रहे थे । पदार्थ विज्ञान के जानने वाले, चतुर पुरुष जल तत्त्व की सत्ता का अनुमान बाँध रहे थे और कायर-डरपोक लोग अपनी जान की खैर मना रहे थे।
यात्रियों के जहाज में कुबेरदत्त अपने एक विश्वस्त सुखानन्द नामक सेवक के साथ एक तरफ बैठकर विचार कर रहा था । दोनों में इस प्रकार बातचीत हो रही थी
सुखानन्द-कहिये, सेठ साहिब! किस विचार में पड़े हो?
कुबेरदत्त-सुखानन्द ! मैं चाहे जैसा ही विचार क्यों न करूं; परन्तु | तुम्हारी सहायता बिना मेरा विचार सफल हो ही नहीं सकता।
__ सुखानन्द-सेठ साहिब ! मैं आपका सेवक हूँ और आप मालिक हैं । मालिक को सेवक की सहायता की जरूरत ही क्या पड़ती है?
कुबेरदत्त-कोई न कोई ऐसा भी प्रसङ्ग आता रहता है, जिसमें सेवक की सहायता की आवश्यकता रहती है।
सुखानन्द-आपके लिए यदि मुझे अपना सिर भी देना पड़े तो मैं तैयार हूँ ।
कुबेरदत्त-धन्य है । शाबाश, तूं मेरा सच्चा विश्वस्त सेवक है। मेरी इस यात्रा का सारा भार तुझ पर ही है।
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