Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 38
________________ इन पाँच रत्नों के कारण यह सुन्दरी प्रत्यक्ष कल्पलता है । यदि यह सुन्दरी मिल जाय तो मेरे भाग्य का पूर्णोदय हो जाय ।सुखानन्द यह सुन्दरी कैसे मिल सकेगी? इस काम में तेरी पूरी-पूरी मदद की जरूरत है।" कुबेरदत्त की यह बात सुनकर सुखानन्द गहरे विचार में पड़ गया । वह पवित्र हृदय का मनुष्य था और सच्चे मन से अपने स्वामी की सेवा करता था । उसकी सच्चाई देखकर ही कुबेरदत्त ने उसे अपना विश्वासपत्र बनाया था । वह जैसा स्वामी की आज्ञा माननेवाला था, वैसाही सच्ची और उचित सलाह देनेवाला भी था । जब कभी कुबेरदत्त, मनोविकार के वशीभूत हो अनीति अत्याचार करता तब सुखानन्द उसे रोक दिया करता था। | कुबेरदत्त की ऐसी कुबुद्धि देखकर, सुखानन्द ने नम्रता पूर्वक कहा - “सेठजी ! आपका यह विचार मुझे ठीक नहीं मालूम होता । राजपुत्र उत्तमकुमार ने अपने पर अनेक उपकार किये हैं । उसने कईबार हमें बड़ी ही आपत्ति से बचाया है । ऐसे बड़े उपकारी कुमार को उसके उपकारों का ऐसा नीच बदला देना यह नीति धर्म के विरुद्ध है । उत्तम पुरुष उपकार के बदले में अपकार कदापि नहीं करते । आप बुद्धिमान हैं, पवित्र विचारों को हृदय में स्थान दीजिए । आप जैसे कुलीन एवम् धनीमानी सज्जनों के हृदय में ऐसे कुविचार पैदा होने लगें तो फिर न जाने सद्विचारों को कहाँ स्थान मिलेगा ? सेठ साहब ! मैं आपका आज्ञाकारी | सेवक हूँ । आपकी आज्ञा मानना मेरा धर्म है । परन्तु जो आज्ञा पवित्र और नीति के अनुकूल हो उसी को मानना मेरा कर्तव्य है। इसी तरह जिसमें अपने स्वामी का हित हो वही कार्य मुझे करना चाहिए । इस काम में अपना हित नहीं बल्कि अहित है। क्योंकि अनीति से उठाया हुआ लाभ, लाभ की अपेक्षा हानि अधिक करता है। इसलिए कृपा कर ऐसे कुविचारों को सदा के लिए हृदय से त्याग दीजिए।"| __ सुखानन्द की यह बातें कुबेरदत्त को बहुत ही बुरी लगीं । उसे अत्यन्त दुःख हुआ । उसने इस बात को हृदय में छिपाते हुए कपट पूर्वक ऊपरी मन से कहा - "सुखानन्द ! जो तूं कह रहा है वह बिलकुल सत्य है । उत्तमकुमार हमारा बड़ा 31

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