Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 39
________________ ही उपकारी है। उसने दो-तीन बार हम सब लोगों के प्राणों की रक्षा की है - यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ । ऐसा दुष्कर्म करने का मेरा विचार नहीं है । सिर्फ तेरी मनोवृत्ति की पवित्रता की परीक्षा के लिए ही ऐसी बात मैने तुज से कही थी । तूं पूर्ण विश्वास रख कि कुबेरदत्त ऐसे नीच विचारों को हृदय में भूलकर भी स्थान नहीं दे सकता।" कुबेरदत्त के यह वचन सुन कर सुखानन्द अपने मन में उसके भावों को अच्छी तरह समझ गया । वह चिर काल के सहवास से कुबेरदत्त के स्वभाव को अच्छी तरह पहिचान ने लगा था । उसने विचार किया कि - "मेरी अच्छी सलाह से सेठ साहब ने अपने कुविचार को छोड़ दिया है । अस्तु, ऐसा करने से भी लाभ ही हुआ । वह अपनी कुबुद्धि का उपयोग नहीं करेंगे । इतने पर भी यदि मुझ से छिपाकर सेठजी गुप्त रूप से अपनी कुबुद्धि के अनुसार काम करेंगे तो इनका विनाशकाल ही समझना चाहिए । “विनाशकाले विपरीत बुद्धि" - यह कहावत बिलकुल सत्य होगी। यह सोचते हुए सुखानन्द ने प्रकट रूप में अपने सेठजी के शुभ विचारों का अभिनन्दन किया । दोनों स्वामी-सेवक अन्यान्य बातें करने लगे । इधर जहाज समुद्र में चले जा रहे थे। नवाँ परिच्छेद शंकित हृदया मदालसा राजपुत्र उत्तमकुमार ने, अपनी प्रिय पत्नी मदालसा के इन रत्नों का चमत्कार जब से लोगों को दिखाया तब से सब यात्री लोग उसके प्रति श्रद्धा एवम् पूज्य बुद्धि रखने लगे । राजकुमार को वे इष्ट देव के समान मानकर उसका आदर | करते थे । प्रत्येक यात्री अपने उपकारी उत्तमकुमार के गुणों की प्रशंसा करता और उसके प्रति पवित्र विचार रखता था। 32

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