Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 33
________________ नहीं करनी चाहिए: जब मौका आयगा तब देखी जायगी।" राजकुमार को विचार मग्न देख उस वृद्धा ने पूछा - "क्यो भाई ! तुम कौन हो ? इधर कहाँ आ फंसे ?" कुमार ने उत्तर दिया - "माता ! मैं एक परनारी सहोदर मानव राजकुमार हूँ । कुबेरदत्त नामक एक व्यापारी के साथ जहाजों पर मुसाफिरी करने निकला था । मार्ग में किसी महादेवी ने मायाजाल में मुझे फंसाया था, परन्तु मैने दृढ़ता पूर्वक अपने महाव्रत की रक्षा की । अन्त में वह दिव्य सुन्दरी मेरा कठोर व्रत | देखकर मुज पर प्रसन्न हुई और उसने मुझे बहुतसा द्रव्य दिया अनन्तर वह वहाँ | | से अंतर्धान हो गयी । इसी समय उसकी माया से वह कुबेरदत्त व्यापारी जो अदृश्य | हो गया था, मेरे पास आया और उसने मुझे जहाज में बैठने का आग्रह किया ।। | पहले, कुबेरदत्त के चले जाने से मैंने उस पर कृतघ्नता का दोष लगाया था, परन्तु |जब मुझे सच्ची बात मालूम हुई तो मैंने अपनी गलती पर पश्चात्ताप करते हुए| उससे क्षमा माँगी और उसके साथ जहाज में बैठकर समुद्र यात्रा आरम्भ की। कुछ दूर आगे चलकर जहाजों में बैठे हुए मनुष्यों को प्यास लगी । वे चिल्ला-चिल्ला कर मीठा पानी माँगने लगे, परन्तु किसी के पास भी मीठा पानी नहीं निकला ।। मल्लाहों ने नौका शास्त्र के बल से कहा कि - अब शीघ्र ही समुद्र जल से रहित एक पर्वत आनेवाला है, उस पर एक कुआ है, उस में बहुत ही मीठा पानी है, परन्तु वह जगह अत्यन्त भयानक है । उसमें भ्रमरकेतु नामक एक राक्षस रहता है । जो कोई प्राणी वहाँ जाता है वह उसे जीवित नहीं आने देता।" मल्लाहों की ऐसी बातें सुनकर मैंने निर्भय होकर कहा - "आप सब लोग यहीं रहिए, मैं अकेला ही उस जगह जाने को तैयार हूँ । आप सब लोगों को जल लाकर पिलाना मेरा धर्म है । मैं क्षत्रिय, शरीरधारी आपके पास हाजिर होते हुए भी बिना पानी के आप लोगों के प्राण चले जायँ यह मैं कैसे देख सकता हूँ?" इतना कह कर मैं इस कुएं के पास आने के लिए तैयार हुआ। उन्होंने मुझे ऐसा करने से रोका । परन्तु मैंने उनके कहने पर ध्यान नहीं दिया । मैं धनुष पर बाण चढ़ा कुएँ के पास खड़ा हो गया और जहाज के लोगों से कहा - आप लोग अपने-अपने बर्तन लाकर इस कुएँ में से मीठा जल भर लो।" 26

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