Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 31
________________ मनमोहक बन गया है। इस महल के पहिले द्वार पर एक वृद्धा स्त्री बैठी है। उसकी पोशाक सादी और स्वच्छ है । उसके मुख मण्डल पर प्रौढ़ता के चिह्न स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं । वह वृद्धा होने पर भी चतुर और “चालाक मालूम होती है । उसका सौन्दर्य बुढ़ापे | से आच्छादित है । वह वृद्धा वहाँ बैठी बहुत सोच-विचार किया करती और | अपने कर्त्तव्य का भी स्मरण करती रहती थी । वृद्धा किसी विचार में निमग्ना थी कि इतने ही में एक युवक वहाँ आ पहुँचा । वह युवक इस अद्भुत मनोहर महल को देखकर चकित हो गया। उसके हृदय में अद्भुत रस के भाव उत्पन्न हुए । जब वह खड़ा-खड़ा उस महल के सौन्दर्य को देख रहा था, उस समय उस वृद्धा स्त्री ने उसे देखा । उस सुन्दर कुमार को देखते ही वह आनन्द और आश्चर्य से उसके पास आकर पूछने लगी। “रे सुन्दर मानव मूर्ति ! तूं यहाँ कहाँ आ गया ? यह यमराज का द्वार है । तेरे किस शत्रु ने तुझे धोखा देकर इस प्राणनाशक स्थान में भेज दिया ? यहाँ आने वाला जीवित नहीं बच सकता।" | उस वृद्धा की बात सुनकर उस तरुण ने पूछा "क्यों माँ ! यह किसका महल है? तुम कौन हो? और यहाँ किसलिए बैठी हो?" । | वृद्धा ने कहा :- "तेरा गांभीर्य देखने से मालूम होता है कि तूं निर्भय सद्गुणी और सत्य परायण व्यक्ति है, इसलिए मैं तुझसे इस स्थान की सत्य-सत्य बातें कहती हूँ । सुन, यहीं पास ही में राक्षस द्वीप है, उसमें एक लङ्का नामक नगरी हैं । उसमें भ्रमरकेतु नामक एक राक्षस राज्य करता है। उसके एक पुत्री है। जिसका नाम मदालसा है । वह अत्यन्त रूपवती और समस्त कलाओं में प्रवीण है । वह सुलक्षणा है - उसके शरीर पर अनेक उत्तमोत्तम चिह्न हैं । देवकन्या के समान रूप, गुण, तथा सर्व लक्षण सम्पन्न राक्षस कन्या मदालसा अपने पिता की अत्यन्त प्यारी बेटी है । राक्षस भ्रमरकेतु उस पर अन्यन्त वात्सल्य-प्रेम रखता है। किसी समय कोई एक ज्योतिषी लङ्का नगरी में आया । उसे अच्छा भविष्यवेत्ता जानकर राक्षसपति-भ्रमरकेतु ने अपने यहाँ बुलाया और पूछा कि - "इस मेरी 24

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