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समुद्र करनेवाला, यह इन्द्रिय निग्रह तप है । इस देश के लोग अब तक भी इस तप का यशोगान करते हैं । अनेक वीर पुरुषों ने इस परनारी सहोदर - व्रत के द्वारा अपने जीवन को निर्वाण के पवित्र एवम् प्रशस्त मार्ग पर पहुँचाया है। ऐसे नररत्नों की सत्कीर्ति इतिहास ग्रंथो में जहाँ-तहाँ वर्णित है । जो इस महाव्रत से वंचित रहे, अथवा जो इस महाव्रत में असफल हुए, उन्हें अत्यन्त दुःखदायी घोर नरक की असह्य यातनाएँ भोगनी पड़ी हैं और साथ ही उनके चरित्र पर चिरकाल के लिए कलंक - कालिमा पुत गयी है । परस्त्री के प्रेम की आशा रखने वाले अधम पुरुषों की कैसी-कैसी दुर्गतियाँ हुई हैं । इसके सैकड़ों उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हैं । ऐसे पापी पुरुष इहलोक और परलोक से पतित होकर महान् कष्ट पा चुके हैं । पाठक ! इन सब बातों पर ध्यान देते हुए अपने जीवन को इस महापाप से बचाने का प्रयत्न करे और परनारी - सहोदर होकर अपने जीवन को उन्नति के मार्ग पर ले जावे । इस कथा के चरित्र नायक " परनारी - सहोदर" है, और वह इस महाव्रत के प्रभाव से किस-किस प्रकार विजयी हुआ, यह सब आगे चलकर आपको ज्ञान हो जायगा ।
सातवाँ परिच्छेद
मदालसा ।
एक सुवर्ण महल है, जिसकी रचना बड़ी ही अनुपम है । रत्न जटित स्तंभों के कारण वह और भी मनोहर हो गया है । महल का शिखर स्वर्ण मंडित होने के कारण ऐसा मालूम होता है मानो अरुणोदय हो रहा है । उस महल में कई दालान और बड़े-बड़े कमरे हैं । प्रत्येक कमरा विविधवस्तुओं से सुसज्जित है । स्वर्ण और रत्नों से मंडित पलंग, चौकी, और झूला आदि सामग्रियों से वह और भी रमणीय मालूम पड़ता है । मणिरत्न विभूषित दीवारों पर बड़े विशाल दर्पण लगे हैं । उनमें दीवारों पर के चित्रित - चित्रों का प्रतिबिम्ब पड़ने से वह और भी
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