Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 15
________________ तीसरा परिच्छेद कर्म परीक्षा एक दिन विद्वान् और बुद्धि विचक्षण उत्तमकुमार अपने युवक मित्रों के साथ गंगा नदी के किनारे टहलने निकला । उसने सादी पोशाक पहिनी थी । एक हाथ में फूलों का गुलदस्ता था । कमर में स्वर्ण तथा रत्नजड़ित कमर-पट्टा बँधा हुआ था, जिसमें एक तीक्ष्ण खड्गका म्यान कनक- मुक्तामय होने के कारण जगमगा रहा था । मस्तक पर सिरपेच का प्रकाश शोभा वृद्धि कर रहा था । दोनों भौंहों के बीच में तिलक सूक्ष्म तारे की भाँति प्रकाशित था । राजकुमार अपने विद्वान मित्रों के साथ विद्या- कला विषयक चर्चा करते जा रहे थे और तत्सम्बन्धी शंका समाधानों का भी क्रम जारी था । एक विद्वान् मित्र ने राजकुमार से प्रश्न किया "प्रिय उत्तमकुमार ! यह बताओ कि, धर्म और कर्तव्य में क्या भेद है ?" राजकुमार ने उत्तर दिया " मित्र ! धर्म और कर्तव्य एक ही हैं । ये परस्पर सहचारी हैं । जो मनुष्य अपने कर्तव्य से विमुख होता है, वह धर्म से भी विमुख है। धर्म का हेतु कर्तव्य में | ही चरितार्थ होता है । जिस तरह कर्तव्य हीन मनुष्य धर्म साधन नहीं कर सकता उसी तरह धर्म-विमुख व्यक्ति कर्तव्य भी पालन नहीं कर सकता। जो धर्म परायण होता | है वही कर्तव्य परायण है, और जो कर्तव्य परायण है वही धर्मपरायण है । ये दोनों एक ही हैं- इनमें कुछ भी भेद नहीं है ?" T बीच में ही एक चतुर युवक ने बात काटकर कहा “राजकुमार ! आज तक मेरा तो यही खयाल था कि धर्म और कर्तव्य दोनों अलग-अलग वस्तु हैं, क्योंकि कर्तव्य का सम्बन्ध इसलोक से और धर्म का परलोक से है । परन्तु आपके कहने से तो मेरा खयाल झूठा सिद्ध होता है । अब मुझे आज यह निश्चय हो गया कि कर्तव्य ही धर्म और धर्म ही कर्तव्य है । दोनों में कुछ भी भेद I 8

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