Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 26
________________ और कहाँ जाना चाहिए ? "इसी उधेड़बुन में वह एक छायादार वृक्ष के नीचे जा | पहुँचा।कुमार थोड़ी देर वहाँ बैठकर आराम करने लगा। सूर्य का रथ अस्ताचल के उस पार निकल गया । रात्रि ने अपना अन्धकार का काला पर्दा विश्व पर डाल दिया। राजकुमार अपने पुरुषार्थ के बल पर उसी वृक्ष के नीचे निर्भयता पूर्वक सो रहा । दूसरे दिन प्रातः समय उस वृक्ष पर सफेद वस्त्र की उसने एक ध्वजा बान्धी और वहीं निवास करने लगा। आस-पास के वृक्षों पर से सुस्वादु-मधुर फल तोड़कर उनसे अपना जीवन निर्वाह करने लगा । पाठक ! इस घटना से हमें एक उपयोगी शिक्षा लेनी चाहिए - यदि अपने जीवन को निष्कलंक रखना हो और मानवजीवन सार्थक करना हो तो भूल कर भी कृतघ्नता नहीं करनी चाहिए। किसी के उपकारों का बदला कृतघ्नता के रूप में देना भयङ्कर पाप है। किसीके थोड़े से भी उपकार के बदले में उसका आभारी रहना उत्तम पुरुषों का काम है। यदि आप अपने प्रति किये उपकार का बदला न दे सको तो अपने हृदय में उसके लिए सद्विचार अवश्य रखो और ऐसे समय की प्रतीक्षा में रहो कि मौका आते ही आप उसका बदला दे सको । उपकार के बदले में अपकार नहीं करना चाहिए । कृतघ्नी नहीं होना चाहिए । कृतघ्नतारूपी महान् दोष मनुष्य जीवन को कलंकित करके अन्त में नरक में पहुँचाता है ।। छठा परिच्छेद परनारी-सहोदर एक दिव्य-सुन्दर स्त्री श्रृंगार किये उस वन में घूमती थी । उसके स्वाभाविक सौन्दर्य की शोभा शृङ्गार के कारण और भी अधिक दर्शनीय बन गयी थी । मुख-चन्द्र का तेज उसके आस-पास प्रकाशित हो रहा था । उसके शरीर का प्रत्येक अंग सौन्दर्य के साथ ही साथ प्रकाश कर रहा था । उसके हाथ में एक फूलों की गेंद थी। उस गेंद से वह रमणी इधर उधर खेलती फिरती थी। 19

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