Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 27
________________ जब कि वह उस गेंद को उछालकर उसे देखने के लिए आकाश की ओर देखती तब उसके मुख-मण्डल के प्रकाश में आकाश आलोकित हो जाता था यह रमणी घूमती फिरती वहाँ आ पहुंची, जहाँ सफेद घ्वजा वाला वृक्ष था। उस वृक्ष के नीचे, उत्तम कुमार को द्वितीय कामदेव के समान बैठा देखकर वह उस पर तत्काल मोहित हो गयी । कामबाणों से विद्ध उस दिव्यांगना ने मन-हीमन सोचा - “ अहा ! कैसा मनोहर रूप है ? शरीर मानों साँचे में ढला हुआ है ! कैसी सुन्दर आकृति है ? ऐसे निर्जन स्थान में यह तरुण कहाँ से आया ? मेरा भाग्य ही उसे यहाँ खींच लाया है ऐसा मालूम होता है । चलूँ, देखें उससे मधुर-भाषण कर उसे अपना बनाऊँ ।" यह सोचकर वह दिव्य-सुन्दरी राजकुमार के पास आयी । उसे अचानक आयी देख, राजकुमार आश्चर्य-चकित हो मन में विचारने लगा - "इस निर्जन स्थान में ऐसी सुन्दर स्त्री कहाँ से आ पहुँची ?" उसे आश्चर्य में पड़ा देखकर, उस सुन्दरी ने कटाक्ष मारते हुए कहा - "कुमार ! आपके दर्शन से मेरे मनोरथ |सफल हुए हैं । मेरी सौभाग्य देवी ने ही आज प्रसन्न होकर मुझे आपसे मिलाया है । निर्भय होकर आप मुझे अपनी अर्धाङ्गिनी बनाओ - अपने रमणीय यौवन को सफल करो । मैं इस द्वीप की अधिष्ठात्री देवी हूँ। यदि आप मुझ से अपना प्रेम सम्बन्ध कर लोगे तो आप स्वर्गीय आनन्द प्राप्त करोगे । आप एक मनुष्य हैं - मानव शरीर द्वारा दिव्य - सुख का प्राप्त होना असम्भव है । इस पर भी आपकी मनोहर मूर्ति पर मैं आसक्त हुई हूँ। आपके इस मानव शरीर को मेरे साथ दिव्य| भोग भोग ने का आज अहो भाग्य प्राप्त हुआ है। आपके रूप और गुणों पर मुग्ध होकर मैं आपके अधिन होने को तैयार हूँ । आशा है, आप इस अवसर को न जाने देंगे।" उस दिव्य रमणी के मुँह से ऐसे मन मोहक वचनों को सुनकर | धीर-वीर उत्तमकुमार कहने लगा - “माता ! यह क्या कह रही हो ? आप जैसी | पवित्र देवी के मुख से ऐसे वचन कदापि नहीं निकलने चाहिए । मैं मानव | देहधारी आपका पुत्रवत् हूँ । भूतल पर विचरने वाले सभी मनुष्य आपकी सन्तान 20

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