Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 25
________________ बोला - “रे पापी ! ठहर, मैं तुझे अभी देखता हूँ ।" राक्षस भी राजकुमार पर लपटा और राजकुमार उस पर लपटा । समुद्र के तट पर दोनों का भीषण युद्ध होने लगा । वीर उत्तमकुमार ने अपने बाहुबल से भ्रमरकेतु को थका दिया - वह हाँफने लगा और अन्त में वहाँ से प्राण लेकर भाग गया । राक्षस के भाग जाने पर उत्तमकुमार शान्त होकर समुद्र के किनारे 'कुछ देर तक खड़ा रहा। जब उसने समुद्र की ओर देखा तो उसे कुबेरदत्त तथा उसके जहाज दिखाई नहीं पड़े । जहाँ तक उसकी दृष्टि पहुँच सकती थी वहाँ तक उसने नजर दौड़ा कर जल मार्ग को देखा; परन्तु उसे जहाज आदि कहीं भी कोई नहीं दिखा । राजकुमार मन-ही-मन सोचने लगा "यह जगत स्वार्थी है । जिसका मैंने उपकार किया उसी कुबेरदत्त ने मुझे युद्ध में उस राक्षस से भिड़ाकर अपने जहाजों को आगे बढ़ा दिया ! ओफ्, कैसा नीच स्वार्थ है ? जिन्हें राक्षस के हाथों से छुड़ा कर जीवन - दान दिया वे लोग भी तो मुझे यहाँ अकेला छोड़कर भाग गये ! संसार में ऐसे कृतघ्नियों को धिक्कार है। ऐसे नीच कृतघ्न पुरुषों ही के कारण पृथ्वी पर पाप का भार बढ़ रहा है और इन्हीं पापियों के कारण जगत दुःखागार बन रहा है । जो किये हुए उपकारों को नहीं समझते, ऐसे कृतघ्नी लोगों से ही यह संसार असार और 'दुःख का हेतु समझा जाने लगा है । जगत में मनुष्य योनि सब से श्रेष्ठ मानी जाती है, इतने पर भी उसमें जो दूषण दिखाई पड़ते हैं वे ऐसे स्वार्थी और कृतघ्नी लोगों के कारण ही है। ऐसे कृतघ्नी मनुष्यों को बार-बार धिक्कार है ।" यह सोचकर राजकुमार ने तत्त्व दृष्टि से विचारा कि - "जो कुछ भी हुआ सो ठीक है । उन स्वार्थी लोगों ने अपने स्वभावानुसार कर दिखाया; परन्तु मुझे ऐसे नीच पामरों के दोष देखने की जरूरत क्या है ? मेरे कर्म का भी तो दोष होगा । ऐसे निर्जन समुद्र तट पर, दुःखभोग करने में मेरे किसी पूर्व संचित कर्म का फल अवश्य ही होना चाहिए । यही कारण है कि कुबेरदत्त के हृदय में कृतघ्नतादोष उत्पन्न हुआ । मैं उसे क्यों दोष दूँ ? यह सब मेरे ही कर्मो का तो फल है ! ऐसा सोचकर वह समुद्र के किनारे-किनारे चलने लगा । अब क्या करना चाहिए ? 1 - 18

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