Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 23
________________ फिरता समुद्र के किनारे आया । उस समय हजारों जहाज और नौकाएँ माल से लदी हुई जाने के लिए तैयार थी । सिर्फ नाविकों द्वारा दी हुई अनुकूल हवा की सूचना की प्रतिक्षा में व्यापारी लोग द्वीपान्तरों में जाने की तैयारियाँ कर रहे थे। वह | राजकुमार एक बड़े जहाज के पास आकर खड़ा हो गया । उस जहाज के पास ही एक तेजस्वी पुरुष खड़ा-खड़ा माल और मनुष्यों की संख्या गिन रहा था। राज-तेज से प्रदीप्त उत्तमकुमार को देखकर उस प्रौढ़ पुरुष ने पूछा - "भद्र ! आप कौन हैं; और यहाँ क्यों आये हो ? यदि आपकी इच्छा हो तो मेरे साथ जहाज में चलिए।" राजकुमार ने नम्रता पूर्वक कहा - "मैं एक मुसाफिर राजकुमार हूँ। विदेशों में भ्रमण करने के लिए ही राज्य छोड़कर निकला हूँ।" यह सुनकर उस प्रौढ़ पुरुष ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा – “यदि आपकी इच्छा हो तो मेरे साथ चल सकते हैं । आप जैसे भाग्यशाली पुरुष के साथ मुझे इस यात्रा में खूब लाभ होगा।" राजकुमार ने उत्सुकता से पुछा - "आप कौन हैं ? और कहाँ जायेंगे ?" प्रौढ़ पुरुष बोला - "मैं कुबेरदत्त नामक एक समुद्री व्यापारी हूँ । इसी शहर में रहता हूँ। मेरे अधिकार में बहुत से जहाज हैं । मेरा व्यापार लगभग सभी द्वीप द्वीपान्तरों में होता है । जिस ओर पवन-अनुकूल होता है उसी दिशा में मैं अपने जहाजों को चलाता हूँ।" कुबेरदत्त के इन वचनों को सुनकर उत्तमकुमार समुद्र-यात्रा के लिए तैयार हो गया, और एक जहाज पर जा बैठा । ठीक समय पर जहाज के लंगर उठे और | मल्लाहों ने जहाज चला दिये। हवा की अनुकूलता पाकर जहाज समुद्र तल पर चलने लगे । समुद्र अपनी | तरंगें उछाल रहा था । जलजीव जल में आनन्द पूर्वक क्रीड़ा कर रहे थे । जहाज के ऊपरी हिस्से में बैठकर उत्तमकुमार समुद्र की खिलवाड़ देखने लगा । लहरों के साथ जल-जंतुओं की कूद-फाँद, और दौड़ाई देखकर वह मन में अनेक प्रकार के विचार करने लगा । ऊपर आकाश और नीचे जल-इन दोनों तत्त्वों को देखकर क्षण भर के लिए ऐसी भावना मन में उत्पन्न हो जाती थी कि मानों दूसरे तत्त्व इस | संसार में है ही नहीं। 16

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