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अपना जीवन धन्य समझते थे । जो कोई महाराजा की शरण में आता उसे अभय प्रदान कर रक्षा करते थे । इन गुणों से महाराजा मकरध्वज की कीर्ति - ध्वजा चारों दिशाओं में फहराने लगी ।
" जो प्रजा के मन को प्रसन्न रखता है वही राजा कहलाने का सच्चा अधिकारी है ।" इस बात को महाराजा मकरध्वज अच्छी तरह समझते थे । इसी कारण राज्य की आबादी दिन-प्रति-दिन बढ़ती ही जाती थी । राज्य कोष में भगवती लक्ष्मी आनन्दमग्ना हो, निरन्तर नृत्य करती रहती थी । हाथी, घोड़े, रथ और पैदल चतुरङ्गिणी सेना राज्य रक्षा के लिए अत्यधिक थीं ।
ऐसे समृद्धशाली राज्य में वाराणसी की सब - प्रजा अत्यन्त सुखी थी । व्यापार और उद्योग वहाँ दिन - प्रति दिन बढ़ते जाते थे । गंगा की तरंगो की भांति यहाँ की प्रजा में व्यापार और उद्योग हिलोरें लेते दिखाई पड़ते थे । लक्ष्मी की कृपा से, चोरी, बदमाशी, ठगी और धोके बाजी आदि दुर्गुण प्रजा में उत्पन्न नहीं हो सके । प्रत्येक मनुष्य में धार्मिकता सत्य, स्नेह और भक्ति सदैव जागरित थी । ऐसी अनुपम राजधानी में महाराजा मकरध्वज अपनी रानी सहित धर्म तथा पूर्वक राज्य सुख का उपभोग करते थे । महाराजा ने धार्मिक और सांसारिक शिक्षारूपी कल्पलता को पल्लवित और कुसुमित करने के लिए विविध पाठशालाएँ तथा कलाभवनों की स्थापना की थी । इनसे वाराणसी की समस्त प्रजा भली प्रकार लाभ उठाती थी । प्रजा में विद्वान्, कवि, और चतुर कलाकारों की संख्या अधिक थी । महाराजा के विद्याप्रेम तथा गुण ग्राहकता के कारण वाराणसी समस्त भारत का विद्याकेन्द्र बन रहा था । यहाँ के विद्वान् भूतल के सब भागों में ख्याति प्राप्त कर चुके थे । उन दिनों भारतीय - विद्याएँ और कलाएँ वाराणसी के पवित्र क्षेत्र में शरीर नृत्य करती मालूम पड़ती थी । महाराजा मकरध्वज की राज नगरी में, विद्वत्ता, सत्य, नैपुण्य, कवित्व और धार्मिकता प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते थे । प्रत्येक कुटुम्ब में विद्वान्, कवि, सत्यनिष्ठ और धार्मिक व्यक्ति पाये जाते थे ।
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