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ऐसी उत्तम राजधानी में महाराजा मकरध्वज अपना जन्म सार्थक करते थे। ये आर्हत धर्म के अनुयायी तथा नीति के प्रचारक थे । सत्य पर अटल रहने वाले, आश्रय हीनों के आश्रय थे । दुखियों के दुःख निवारक एवम् प्रजा के सच्चे सुधारक थे। गुरुजनों के भक्त और जिन-सेवा में अनुरक्त थे । प्रत्येक पवित्र कार्य के सम्पादन में सशक्त किन्तु विषयों में अनासक्त थे।
महारानी लक्ष्मीवती भी महाराजा की भाँति सद्गुणों से सम्पन्न और पुण्य संचय करने वाली एक उत्तम श्राविका थी । उसने अपने राज्य के स्त्रीसमाज के सुधार में अपना जीवन लगा दिया था । धार्मिक तथा संसारिक शिक्षा से उसे अत्यन्त प्रेम था, इसलिए स्त्री समाज को इस प्रकार का शिक्षण देने का अच्छा प्रबन्ध कर रखा था। श्राविका धर्म का रहस्य क्या है ? श्राविका का इस जगत में क्या कर्तव्य है ? और श्राविका को क्या - क्या काम करने चाहिए ? इत्यादि विषयों पर महाराणी लक्ष्मीवती ने अच्छा मनन और पूर्ण अभ्यास किया था । उसकी मनोवृत्ति में आर्हत-धर्म के पवित्र संस्कारों का अच्छी तरह समावेश था । वह स्त्री-समाज में सब प्रकार के ज्ञान तथा कला कौशल को फैलाना चाहती थी, परन्तु “धर्म कला" के लिए उसके हृदय में सर्वोच्च स्थान था । धर्म-कला के बिना अन्य सब कलाएँ व्यर्थ है-ऐसा उसके हृदय में दृढ़ निश्चय था । वह प्रायः कहा करती कि:
कला बहतर जो पढे, पंडित नाम धराय। धर्म कला आवे न यदि, तो वह मूरख राय ॥
अन्य कलाओं में कहीं, धर्म कला सरदार । धर्म कला बिन मनुष्य का, समझो पशु अवतार ॥