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नहीं है ।" (यह व्यवहार धर्म की बात है )
इस प्रकार राजकुमार और उसके मित्रों में बातचीत हो ही रही थी कि गंगा के
दूसरे किनारे मधुरस्वर में किसी ने गाया :
"पितु - धन बचपन में विपुल, खरचे खेले खाय । तरुण भये पै खाय तो, जन्म अकारथ जाय ॥ सोलह वर्ष बिताय कर, करे न जो उद्योग । पितु - धन की आशा करे, वह निन्दा के जोग ॥ सिंह और उत्तम पुरुष, करै न पर की आस । कर पुरुषारथ खाय जो, करके सुजस प्रकास ॥ जिसने बचपन में कभी, किया न कीर्त्ति प्रकाश ।
उससे तो पशु ही भला, चरै बेचारा घास ॥
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इस संगीत सुधा का उत्तमकुमार ने बड़े आनन्द से पान किया । संगीत की प्रति-ध्वनी गंगा के दोनों किनारों पर गूंजकर मानों उसे दोहरा चुकी थी । गान समाप्त होते ही राजकुमार विचार - सागर में गोते खाने लगे । काव्य का आशय उनके मनोविचार से मिल गया । हृदय पर गहरी छाप बैठ गयी । मन ही मन विचार किया :
"धन्य; इस काव्य का आशय कितना उत्तम है । सोलह वर्ष की उम्र होने के बाद पिता के भरोसे जीवन निर्वाह करना अधम- जीवन है । पिता की राज्य लक्ष्मी का उपभोग पुत्र करे इसमें विशेषता ही क्या है ? यह तो उच्छिष्ट भोजन के समान है । आत्म बल या आत्मोद्योग किये बिना पराधीन होकर अपनी जीवननौका चलाना, अत्यन्त निन्दनीय कार्य है । ज्ञान तथा कलाओं का जानकार, आत्मबल तथा पुरुषार्थ को बढ़ाने योग्य और जवान अवस्था पाकर भी पिता की राज्य - लक्ष्मी का उपभोग करता रहूँ, यह अत्यन्त अनुचित बात है । अब मुझे अपने कर्म की परीक्षा करनी चाहिए । अगाधकर्म सागर में पड़े हुए प्राणियों को अपने कर्म - भाग्य का बल जान लेना चाहिए । भाग्य - कर्म की परीक्षा किये
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