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गाथा गायन की परम्परा वैदिक काल से ही चली आ रही थी । वैदिक यज्ञों में गाथा गायन होता था। ब्राह्मण ग्रंथों ने तो किस यज्ञ में किस-किस मूर्च्छना या तान के साथ कौन-सी गाथाएँ गाई जायेंगी इसका विधान भी बताया है। वैदिककाल से चली आती गाथा की परम्परा में संस्कृत के साथ-साथ प्राकृतभाषा में गाथाओं का प्रणयन होता रहा। संस्कृत और प्राकृत की गाथाओं का छन्दोविधान, लय और गति एक ही है। श्री रत्नशेखरसूरि ने अपने छन्दः कोश में गाहा का लक्षण इस प्रकार किया है
सामन्त्रेण बारस अट्ठारस बार पनरमत्ताओ । कमसो पायचउक्के गाहाए हुंति नियमेणं ॥ गाहाइदले चउ चउ मत्तंसा सत्त अट्ठमो दुकलो । वीदले विहु नवरं छट्ठोइ एकगलो ॥
संस्कृत आर्या छन्द का भी यही लक्षण है।
गाहासतसई की लोकप्रियताः
प्राकृत की गाथाओं का प्रथम उपलब्ध संकलन पहली शताब्दी में राजा हाल ने गाहासतसई के नाम से तैयार किया। गाहासतसई भारतीय साहित्य की अनमोल निधि है। इसकी गाथाएँ भारतीय जीवन और समाज की सच्चाईयों से हमें रूबरू कराती हैं, अपनी सरसता और सौंदर्य में भी वे अनोखी हैं। गाहासतसई की गाथाओं का प्रभाव संस्कृत की मुक्तक काव्य परम्परा पर देखा जा सकता है। जो विद्वज्जन कालिदास को गुप्तकाल का कवि मानते हैं, वे इनके मेघदूत, कुमारसम्भव आदि काव्यों में गाहासतसई के गाथाओं की छाया देखते हैं।
श्री एस. वी. सोहानी का मत है कि कालिदास ने सातवाहन राजा हाल की गाहासतसई से प्रभावित होकर कुमारसम्भव तथा मेघदूत में शिवपार्वती के दांपत्य का सरस चित्रण किया है। यही नहीं, वे यक्ष के संदेश की निम्नलिखित पंक्तियों में गाहासतसई की एक गाथा की आलोचना करते हुए प्रतीत होते हैं
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स्नेहानाहुः किमपि वरिहे ध्वंसिनस्ते त्वभोगादिष्टे वस्तुन्युपचिततरसे प्रेमराशीभवन्ति ॥
में
अर्थात् कहते है कि विरह में प्रेम कुछ छीज जाता है, पर ऐसा कहना ठीक नहीं है। वास्तव में इष्ट या प्रिय के ध्यान एकतान होने से विरह में विरही के चित्त का प्रेम राशि - राशि संचित होकर बढ़ता रहता है। गाहासतसई की एक गाथा में कहा गया है कि प्रेमिका से न मिलने पर प्रेम धीरे-धीरे ऐसे ही समाप्त हो जाता है, जैसे चुल्लू में लिया गया पानी
अद्दंसणेण पुत्तअ सुडवि णमेहाणुबन्धघडिआई । हत्थउचपाणिआइँ व कालेण गलंति पेम्माई ||
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- गाहासतसई ३, ३६
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