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यह उर्ध्वस्रोत की प्राप्ति धार्मिक चर्या का प्रयोजन है। उर्ध्वस्रोतकता की प्राप्ति संवृत्तिविधि चित्त के संस्कार से होती है। संवृत्ति बोधिचित्त शब्द का प्रयोग बौद्ध सिद्धसाहित्य में होता है। शून्यवाद में प्रपंचहीनता ही शून्यता कहा जाता है।
कर्मक्लेशक्षयान्मोक्षः कर्मक्लेश विकल्पतः।
ते प्रपंचात् प्रपंचस्तु शून्यतायां निरुध्यते ॥-माध्यमिक कारिका १८/५ धम्मपद में कह दिया गया था कि प्रपंचरहित अवस्था को पाना कठिन है। वह तथागत ही पा सकते हैं। इसलिए कहा गया है -
आकासे च पदं नत्थि समणो नत्थि बाहिरे ।
प्रपंचाभिरता प्रज्ञा निप्पपंचा तथागता ॥- धम्मपद २५४ प्रपंच को व्याख्यायित करते हुए शांतिभिक्षु इसी शब्द और अर्थ की पकड़ करते हैं।
तथागत की दो गाथाएँ, जिनमें निर्वाण के अनिमित्ताकार के साथ शून्याकार की देशना है, वे शून्य शब्द के प्रयोग में अपना विशेष महत्त्व रखती हैं। वे गाथाएँ ये हैं -
येसं सन्नियो नत्थि ये परिजातभोजना। सुज्ञतो अनिमित्तो च विमोक्खो येसं गोचरो ।
आकासेव सकुन्तानं गति तेसं दुरन्नया ।- धम्मपद ९२ जिनके पास संनिचय अर्थात् धन-धान्य संग्रह नहीं है, जो भोजन के विषय में सावधान रहते हैं। शून्य तथा अनिमित्त विमोक्ष जिनका गोचर है -भावना का आलम्बन है। उनकी गति (चिह्न) को आकाश में पक्षियों की गति (गति-निह्न) की भाँति खोज पाना असम्भव है।
यस्सासवा परिक्खीणा आहारे च अनिस्सितो। सुञतो अनिमित्तो च विमोक्खो यस्स गोचरो।
आकासेव सकुन्तानं पदं तस्स दुरन्नयं ॥ - धम्मपद ५३ जिनके (चित्त-) मल पूर्णतया क्षीण हो चुके हैं, जो आहार में आसक्त नहीं है। शून्य तथा अनिमित्त विमोक्ष गोचर है-भावना का आलम्बन है। उसके पद (-चिह्न) को आकाश में पक्षियों के पद (-चिह्न) की भाँति खोज पाना असम्भव है। (गाथा में शून्यता शब्द के अर्थ में है, त-प्रत्यय स्वार्थिक है) गूढार्थ:____ यद्यपि तथागत में आचार्य-मुष्टि नहीं थी, वे तत्त्व को अपने शिष्यों से नहीं छिपाते थे, फिर भी गूढ शैली में भी उन्होंने कहीं कहीं कहा है। आचार्य असंग ने अभिधर्मसमुच्चय में ऐसे कुछ स्थलों की ओर संकेत किया है, जिनमें
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