Book Title: Universal Values of Prakrit Texts
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Bahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan

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Page 296
________________ 31. कर्नाटक की कतिपय मध्ययुगीन यशस्विनी श्राविकाएँ ___-प्रो. डॉ. श्रीमती विद्यावती जैन, नोएडा कर्नाटक-प्रदेश भारतीय संस्कृति के लिय युगों-योगों से एक त्रिवेणी-संगम के समान रहा है। भारतीय-भूमण्डल के तीर्थयात्री अपनी तीर्थयात्रा के क्रम में यदि उसकी चरण-रज-वन्दन करने के लिये वहाँ न पहुँच सकें, तो उनकी तीर्थयात्रा अधूरी ही मानी जायेगी। भारत के बहुआयामी इतिहास के लेखन में कर्नाटक का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। उसके पूर्व-मध्यकालीन राजवंशों ने जहाँ अपनी राष्ट्रवादी एवं जनकल्याणी भावनाओं से अपनी-अपनी राज्य-सीमाओं को सुरक्षित रखा और अपने यहाँ के वातावरण को सुशान्त एवं कलात्मक बनाया, वहीं उन्होंने अपनी संस्कृति, सभ्यता, कला एवं साहित्य के विकास के लिये साधकों, चिन्तकों, लेखकों, कलाकारों एवं शिल्पकारों को, बिना किसी भेद-भाव से सभी प्रकार की साधना-सुविधाएँ उपलब्ध कराई, उनके लिए विद्यापीठे, अध्ययन-शालाएँ एवं ग्रन्थगार स्थापित कर, उन्होंने जो भी रचनात्मक कार्य किये, वे भारतीय परम्परा के आदर्श एवं अनुपम उदाहरण हैं। वहाँ के पुरुष-वर्ग ने जो-जो कार्य किये, वे इतिहास के अमिट अध्याय तो हैं ही, वहाँ की महिलाओं के संरचनात्मक कार्य भी अत्यंत अनुकरणीय एवं प्रेरक रहे हैं। चाहे साहित्य-लेखन के कार्य हों, पाण्डुलिपि की सुरक्षा एवं प्रतिलिपि-सम्बन्धी कार्य हो, मन्दिर एवं मूर्ति-निर्माण अथव प्रतिष्ठा-कार्य हों और चाहें प्रशासन सम्बन्धी कार्य हों, वहाँ की जागृत नारियों ने पुरुषों के समकक्ष ही शाश्वत-मूल्य के कार्य किये हैं। कर्नाटक की अदर्श राज्य-प्रणाली ने नारी को सातवीं-आठवीं सदी से बिना किसी रोक-टोक के समानाधिकार दे रखें थे। कर्नाटक के सामाजिक इतिहास के निर्माण में योगदान करने वाली ऐसी सैकड़ों सन्नारियाँ हैं, जिनकी इतिहास-प्रेरक प्रशस्तियाँ, वहाँ के शिलालेखों, मूर्तिलेखों एवं स्तम्भ-लेखों में अंकित हैं तथा वहाँ की किंवदन्तियों, महावतों एवं लोकगाथाओं में आज भी जीवित हैं। किन्तु जहाँ तक मुझे जानकारी है अभी तक उसका सर्वांगीण सर्वेक्षण एवं समग्र मूल्यांकन नहीं हो सका है। कतिपय श्राविकाओं का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास है। विदुषी कवियित्री कन्ती देवी ___ कवियित्री कन्ती-देवी (सन् ११४० के लगभग) उन विदुषी लेखिकाओं में से है, जिसके साहित्य एवं समाज के क्षेत्र में बहुआयामी कार्य तो किये, किन्तु यश की कामना उसने कभी नहीं की। कन्नड़ महाकवि बाहुबली (सन् १५६०) ने अपने 'नागकुमार-चरित' में उसकी दैवी-प्रतिभा तथा ओजस्वी व्यक्तित्व की चर्चा की है और बतलाया है कि वह द्वार-समुद्र (दोर-समुद्र) के राजा बल्लाल द्वितीय की विद्वत्सभा की सम्मानित विदुषी कवियित्री थी। बाहुबली ने उसके लिये विद्वत्सभा की मंगल-लक्ष्मी, शुभगुणचरिता, अभिनव-वाग्देवी जैसी अनेक प्रशस्तियों से सम्मानित कर उसकी गुण-गरिमा की प्रशंसा की है। इन सन्दर्भो से यह स्पष्ट है कि कन्ती उक्त बल्लालराय की राज्य-सभा की गुण-गरिष्ठा सदस्या थी। -254 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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