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दान-चिन्तामणि अत्तिमब्बे
महासती श्रावकिा अत्तिमब्बे (१०वीं सदी) न केवल कर्नाटक की, अपितु समस्त महिला-जगत् के गौरव की प्रतीक है। ११ वीं सदी के प्रारम्भ के उपलब्ध शिलालेखों के अनुसार यह वीरांगना दक्षिण-भारत के कल्याणसाम्राज्य के उत्तरवर्ती चालुक्य-नरेश तैलपदेव आहवमल्ल के प्रधान सेनापति मल्लप्प की पुत्री तथा महादण्डनायक वीर नागदेव की धर्मपत्नी थी। उसके शील, पतिव्रत्य एवं वैदुष्य के कारण स्वयं सम्राट भी उसके प्रति पूज्य-दृष्टि रखते थे । कहा जाता है कि अपने अखण्ड पातिव्रत्य-धर्म और जिनेन्द्र -भक्ति में अडिग-आस्था के फलस्वरुप उसने गोदावरी-नदी में आई हुई प्रलयंकारी बाढ़ के प्रकोप को भी शान्त कर दिया था और उसमें फंसे हुये सैकड़ों वीर-सैनिकों एवं अपने पति दण्डनायक नागदेव को वह सुरक्षित वापिस ले आई थी। कवि चक्रवर्ती रन्न (रत्नाकर) ने अपने अजितनाथपुराण की रचना अत्तिमब्बे के आग्रह से उसी के आश्रय में रहकर की थी। महाकवि रन्न ने उसकी उदाहरतापूर्ण दान-वृत्ति, साहित्यकारों के प्रति वात्सल्य-प्रेम, जिनवाणी-भक्ति, निरतिचार-शीलव्रत एवं सात्विक-सदाचार की भूरि-भूरि प्रशंसा की है और उसे 'दान-चिंतामणि' की उपाधि से विभूषित किया है।
अत्तिमब्ये स्वयं तो विदुषी थी ही, उसने कुछ नवीन-काव्यों की रचना के साथ ही प्राचीन जीर्ण-शीर्ण ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों के उद्धार की ओर भी विशेष ध्यान दिया। उसने उभय-भाषा-चक्रवर्ती महाकवि पोन्न कृत 'शान्तिनाथ-पुराण' की पाण्डुलिपि की १००० प्रतिलिपियाँ कराकर विभिन्न शास्त्र-भण्डारों में वितरित कराई थीं। यही नहीं, उसने स्वर्ण, रजत, हीरा, माणिक्य आदि की १५०० भव्य-मूर्तियाँ बनवाकर विभिन्न जिनालयों में प्रतिष्ठित कराई थीं। इन सत्कार्यों के अतिरक्ति भी उसने विभिन्न जिनालयों में पूजा-अर्चना हेतु प्रचुर-मात्रा में भूदान और सर्वत्र चतुवधि दानशालाएँ भी खुलवाई भी। इस प्रकार भ. महावीर के सर्वोदयी-आदर्शों का चहुँ ओर प्रचार-प्रसार कर उसने यशार्जन किया था। वीरांगना सावयिब्बे
वीरांगना सावियब्बे श्रावक-शिरोमणि, वीरमार्ताण्ड, महासेनापति चामुण्डराय (१०वीं सदी) की समकालीन थी। उसके पति का नाम लोकविद्याधर था, जो बडा ही वीर एवं पराक्रमी था। वह गंग-नरेश रक्सगंग का भानजा था। सावियब्बे को छुटपन से ही रण-विद्या की शिक्षा दी गई थी। उसमें वह बड़ी कुशल सिद्ध हुई। अपनी इसी विशेषता के कारण दिग्विजयी जैन सम्राट खारवेल की महारानी सिन्धुला के समान ही, एक ओर तो वह अपने पति साथ वीरता-पूर्वक युद्ध का साथ देती थी और दूसरी ओर अतिरिक्त समयों में वह नैष्ठिक श्राविका-व्रताचार का पालन भी करती थी।
श्रवणबेलगोला की बाहुबलि-बसदि के पूर्व की ओर एक पाषाण में टंकित लेख में इस वीरांगना को रेवतीराणी जैसी पक्की श्राविका, सीता जैसी पतिव्रता, देवकी जैसी रुपवती, अरुन्धती जैसी धर्म-प्रिया और जिनेन्द्र
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