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प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव इसके गुरु थे। शान्तलादेवी ने श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि के शिखर पर एक अत्यन्त सुन्दर एवं विशाल जिनालय का निर्माण करवाया था, जिसका नाम 'सवति-गन्धवारण-बसदि' रखा गया। सवतिगन्धवारण का अर्थ है - सौतों (सवति) के लिये मत्त हाथी। यह शान्तलादेवी का एक उपनाम भी था। इस जिनालय में सन् ११२२ ई. के लगभग भगवान् शान्तिनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा स्थापित की गई थी।
इस मन्दिर में प्रतिष्ठापित जिनेन्द्र के अभिषेक के लिये उसके पास में ही शांतलादेवी ने गंग-समुद्र नामक एक सुन्दर बारहमासी जलाशय का भी निर्माण करवाया था। साथ ही उसने नित्य देवार्चन तथा जिनालय की भावी सुव्यवस्था तथा सुरक्षा आदि के निमित्त अनेक गाँवों की जमींदारी भी उसके नाम लिख दी थी। उक्त बसतिका के तृतीय स्तम्भ पर एक शिलालेख भी उत्कीर्ण है, जिसमें उक्त रानी की धर्म-परायणता की विस्तृत प्रशंसा करते हुए उसे अनेक विशेषणों से विभूषित किया गया है। उसमें उल्लिखित उसके कुछ विशेषण निम्न प्रकार हैं - अभिनवरुक्मिणि, पातिव्रत्य-प्रभाव-प्रसिद्ध सीता, गीत-वाद्य-सूत्रधार, मनोजराज-विजय-पताका, प्रत्युत्पन्न-वाचस्पति, विवेक-बृहस्पति, लोकैक-विख्यात, भव्यजन-वत्सलु, जिनधर्म-निर्मला, चतुःसमय-समुद्धरण, सम्यक्त्व चूडामणि आदि-आदि। आचल देवी
आचल देवी (१२वीं सदी) के जीवन में एक बड़ी भारी विसंगति थी। उसका पति चन्द्रमौली शैवधर्म का उपासक था, जब कि वह स्वय थी जैनधर्मानुयायी। किन्तु दोनों के जीवन-निर्वाह में कोई कठिनाई नहीं आई। क्योंकि स्वभावतः दोनों ही सहज, सरल एवं समन्वयवादी थे। चन्द्रमौली होयसल-नरेश वीर बल्लाल द्वितीय का महामन्त्री था और राज्य-संचालन में अत्यंत कुशल एवं धीर-वीर। अपने पति की सहमति पूर्व आचल देवी ने सन् ११८२ के दशक में श्रवणबेलगोला में अत्यंत भव्य एवं सुरम्य विशाल पार्श्व-जिनालय का निर्माण करवाया था, जिसकी प्रतिष्ठा देशीगण के नयकीर्ति सिद्धान्तदेव के शिष्य बालचन्द्र मुनि ने की थी। यह जिनालय 'अक्कनबसदि' के नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि श्रवणबेलगोला में उक्त वसदि ही एक ऐसा मन्दिर है, जो होयसल-कला का एक अवशिष्ट तथा उत्कृष्ट-कला का नमूना है । इस वसदि की व्यवस्था के लये चन्द्रमौली मन्त्री ने स्वयं ही अपने नरेश से विशेष प्रार्थना कर कम्मेयनहल्लि नामक कर-मुक्त ग्राम प्राप्त किया था और उसे मन्दिर की व्यवस्था के लिये सौंप दिया ता। जिनेन्द्र भक्त लक्ष्मी देवी
जिस प्रकार गंग-नरेशों ने जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में बहुआयामी कार्य किये, विद्यापीठों की स्थापना की, जैनाचार्यों को लेखन-कार्य हेतु सुवधिा-सम्पन्न-आश्रय-स्थल निर्मित कराए, उसी प्रकार उनकी महारानियों ने भी उनका अनुकरण कर नये -नये आदर्श प्रस्तुत किये। ऐसी महिलाओं में से सेनपाति गंगराज की पत्नी लक्ष्मी (१२ वीं सदी) का नाम विस्मृत नहीं किया जा सकता। पति-परायण होने के साथ-साथ वह जिनवाणी-रसिक एवं
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