Book Title: Universal Values of Prakrit Texts
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Bahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
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की अपेक्षा की किसी उच्चतर सामाजिक, नैतिक अथवा आध्यात्मिक मूल्य की प्रतिष्ठा करना रहा है । प्रायः कथा चाहे वह छोटी हो या बड़ी उसका मुख्य उद्देश्य अशुभ कर्मों के कटु परिणाम बताकर मानव को त्याग, सदाचार अथवा व्रताचार की सत्प्रेरणा प्रदान करना है। इस प्रकार आगम काल में प्रतीकों, रूपकों और उपमानों के आधार पर आविर्भूत प्राकृत कथाओं का आगमोत्तर काल में पर्याप्त विकास हुआ। टीकायुग की कथाओं की विशिष्ट प्रवृत्ति नीतिपरकता है। आगम साहित्य की कथाएँ प्रायः धार्मिकता एवं साम्प्रदायकिता से अभिभूत थी। लेकिन टीका युगीन कथाओं में मनोरंजन के साथ-साथ साम्प्रदायिकता से परे नीतिपरकता विद्यामान है।
भगवान् महावीर के द्वारा उपदेशित लिपिबद्ध प्राकृत वाङ्मय में जन-जन को सरल, सात्विक, शालीन, अभिमानरहित, प्रदर्शनरहित सहज जीवन जीने की प्रेरणा, दुःखित, पीड़ित तथा संकट ग्रस्त प्राणियों, वृद्धों, रोगियों, अभाव पीड़ितों को सहयोग करने का उनकी सेवा करने का सन्देश प्रदान किया गया है। विश्व मानव को व्यक्ति, जाति, समाज तथा राष्ट्र इत्यादि के परिपार्श्व में पनपने वाली संकीर्णताओं से ऊँचे उठकर विश्वमैत्री, ऐक्य, समता एवं सौहार्दपूर्ण जीवन जीने की शिक्षा दी, दूसरों के स्वतत्त्वों, अधिकारों का हरण करने, दम्भ, माया, छल, कपट, धोखा, जालसाजी, असत्य, वैमनस्य, द्वेष आदि दुर्गुणों से बचने किसी के भी साथ शत्रुभाव न रखने तथा किसी से भी घृणा न करने का आग्रह किया ।
प्राकृत साहित्य में मानव जीवन की महत्ता और उपादेयता के बारे में कहा गया है कि मानव रूपी इस अमूल्य धरोहर को मूर्खतावश व्यर्थ नहीं खो देना चाहिए। इसी के साथ जीवन की क्षणभंगुरता बताते हुए कहा गया है कि मनुष्य मात्र को क्षण भर भी प्रमाद न करने का कर्तव्य-बोध दिया। इसके अलावा अहिंसा, संयम, क्षमा, विनय, समता भाव, सहिष्णुता और सदाचार रूपी वैश्विक मूल्यों के माध्यम से समझाया गया है।
अहिंसा
समस्त प्राणियों के प्रति संयमभाव ही अहिंसा है, अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूएस संजमो । १५ मन, वचन और काय से संयमी व्यक्ति स्व-पर का रक्षक तथा मानवीय गुणों का खान होता है। शील, संयमादि गुणों से पूर्ण व्यक्ति ही सत्पुरुष है। जिसका चित्त मलीन व पापों से दूषित रहता है, वह अहिंसा का पालन करने वाला नहीं हो सकता। जिस प्रकार घिसना, तपाना और रगड़ना इन चार उपायों से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार श्रुत, शील, तप और दया रूप गुणों के द्वारा धर्म एवं व्यक्ति की परीक्षा की जाती है।
संयम
संजम सील सउच्चु त सूरि हि गुरु सोई ।
दाह छेदक संघायकसु उत्तम कंचण होई ॥। १६
जीवन का सर्वांगीण विकास करना संयम का परम उद्देश्य रहता है । सूत्रकृतांग में इस उद्देश्य को एक रूपक के माध्यम से बताया गया है। कहा गया है कि जिस प्रकार कछुआ निर्भय स्थान पर निर्भीक होकर चलता-फिरता है, किन्तु भय विमुक्त होने पर पुनः अंग-प्रत्यंग फैलाकर
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