Book Title: Universal Values of Prakrit Texts
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Bahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
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चलना-फिरना प्रारम्भ कर देता है, उसी प्रकार संयमी व्यक्ति अपने साधनामार्ग पर बड़ी सतर्कतापूर्वक चलता है। संयम की विराधना का भय उपस्थित हो जाने पर वह पंचेन्द्रियों व मन को आत्मज्ञान में ही गोपन कर लेता है। संयमी व्यक्ति सदैव इस बात का प्रयत्न करता है कि दूसरे के प्रति वह ऐसा व्यवहार करे जो स्वयं को अनुकूल लगता हो। तदर्थ उसे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यमस्थ भावना का पोषक होना चाहिए। सभी सुखी और निरोग रहे, किसी की किसी भी प्रकार का कष्ट न हो, ऐसा प्रयत्न करे।
सर्वेपि सुखिनः सन्तु सन्तु सर्वे निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् । मा कर्षित् कोऽपि पापानि मा च भूत् कोऽपि दुःखितः।
मुच्यतां जगदप्येषामति मैत्री निगद्यते ॥८ विशिष्ट ज्ञानी और तपस्वियों के शम, दम, धैर्य, गाम्भीर्य आदि गुणों में पक्षपात करना अर्थात् विनय, वन्दना, स्तुति आदि आन्तरिक हर्ष व्यक्त करना प्रमोद भावना है। इस भावना का मूल साधना विनय है। जिस प्रकार मूल के बिना स्कन्ध, शाखायें, प्रशाखायें, पत्ते, पुष्प, फल आदि नहीं हो सकते, उसी प्रकार विनय के बिना धर्म व प्रमोद भावना में स्थैर्य नहीं रह सकता।२०
क्षमा
कार्तिकेनानुप्रेक्षा में देव, मनुष्य और तिर्यचों द्वारा घोर व भयानक उपसर्ग पहुँचाये जाने पर भी जो क्रोध से तप्त नहीं होता, उसको निर्मल क्षमाधर्म साधित होता है। यथा -
कोहेण जो ण तप्पदि, सुर-गर-तिरिएहि कीरमाणे वि ।
उवसग्गे वि रउद्दे, तस्स खमा णिम्मला होदि ॥१ मूलाचार२२ में कहा गया है कि राग अथवा द्वेष के वश मैनें कोई अकृतज्ञता की हो अथवा प्रमाद के कारण किसी को अनुचित कहा हो तो मैं उन सब से क्षमा चाहता हूँ । यथा -
रागेण व दोसेण व जं मे अकदण्हुयं पमादेण ।
जे मे किंचिवि भणिओ तमहं सम्मं खमावेमि ।। समभाव ___भावपाहुड की गाथा १०७ में कहा गया है कि सज्जन पुरुष, दुर्जनों के निष्ठुर और कठोर वचनरूपी चपेटों को भी समभावपूर्वक सहन करते हैं। यथा दुजण-वयणचडकं, णिझुर-कडुयं सहति सप्पुरिसा।
सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है कि जो समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी का प्रिय करता है और न किसी का अप्रिय। अर्थात् समदर्शी अपने-पराये की भेदबुद्धि से परे होता है।
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