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शील
'शील सुगति का आधार है। देवता भी उसे नमन करते हैं, जो सदाचारयुक्त होता है' (मू.गा.८)। तीसरे शीलमहात्म्यवर्णनाधिकार में दमयन्ती, सीता, रोहिणी एवं सुभद्रा के उज्वल जीवन चरित्र के माध्यम से शीलपरायण नारियों के उदात्तरूप को प्रदर्शित किया गया है। इस अधिकार के कथानकों की नायिकाओं के जीवन में शील-परीक्षा की अनेक प्रसंग आते हैं। किन्तु वे धैर्य व साहस से उनका सामना करते हुए अपने शीलव्रत पर अटल रहती हैं। इन नारियों के सतित्व का तेज, कष्टों में साहस व धैर्यपरायणता आज भी दुर्बल हृदयों में प्रेरणा जगाने में सक्षम है।
दान
___ करुणा, त्याग अथवा उदारता की भावना से प्रेरित होकर अपनी संग्रह की हुई वस्तु में से कुछ अंश मुक्त मन से प्रसन्नतापूर्वक किसी अन्य व्यक्ति को देना दान कहलाता है। दान करना धर्म साधना का मुख्य अंग है। धर्म से चार भेदों में दान, शील, तप और भावना में दान का प्रथम स्थान है (मू.गा.४)। जैनधर्म में दान की बड़ी महिमा है। दान देने वाले को मोक्ष का अधिकारी बताया है (म.गा.५)। दशवकालिक (९.२.२३) में कहा गया है, जो संविभाग एवम संवितरण नहीं करता उसकी मुक्ति नहीं होती है। दान का जितना आध्यात्मिक महत्व है उतना ही सामाजिक महत्व भी है। सामाजिक जीवन में दान अभावग्रंथ व्यक्तियों के प्रति नैतिक दायित्व भी है।
सवृत्तिआख्यानकमणिकोश के द्वितीय दानस्वरूपवर्णनाधिकार में दान कथाओं के माध्यम से हिंसादि पापों में प्रवृत्त तथा विभिन्न परिग्रहों से युक्त व्यक्तियों को दान में प्रवृत्त होने का संदेश दिया गया है। इस अधिकार में धन, कृतपुण्यक, द्रोण, शालिभद्र, चक्राचर, चन्दनार्या, मूलदेव तथा नागश्री के आख्यानक निरूपित हैं। मनोज्ञ एवं सुपात्र दान को इस भव तथा परभव में कल्याणकारी बताया गया है(मू.गा.६)। प्रायः कथानक के पात्र पूर्वभव में मुनियों को आहारादि दान देने के कारण आगामी भव में अपार ऋद्धि एवं वैभव प्राप्त करते हुए चित्रित किये गये हैं। शालिभद्र का आख्यानक जैन साहित्य का प्रसिद्ध आख्यानक रहा है। 'शालिभद्र की ऋद्धि' जैन साहित्य व संस्कृति में एक कहावत के रूप में प्रसिद्ध है। पूर्वभव में अत्यन्त निर्धन अवस्था में भी माता द्वारा बनाई गई खीर मुनि को दे दी गई। इस सत्कार्य और सुपात्रदान के पुण्यप्रताप से उन्होंने अत्यन्त समृद्धिशाली श्रेष्ठकुल में शालिभद्र के रूप में जन्म ग्रहण किया। चन्दना की कथा जैन परम्परा में नारी की गौरव गाथा का प्रतिनिधित्व करती है। तेले के पारणे में मुनिदान के शुभ भाव से अर्जित पुण्य के कारण दुर्भाग्य वसुमती ने साध्वी प्रमुखा चन्दनार्या का दर्जा प्राप्त किया। उसके नेतृत्व में अनेक श्राविकाओं ने संयम ग्रहण कर अपना आत्मकल्याण किया। इस अधिकार में जहाँ तक ओर सुपात्रदान की महिमा का गान हुआ है वहीं अमनोज्ञ दान के दुष्परिणामों को नागश्री के कथानक द्वारा व्यक्त किया गया है (मू.गा.७)। नागश्री लोकनिन्दा के भय से विषैला अमनोज्ञ आहार मुनि को दे देती है। अशुभपरिणामवश वर्तमान तथा आगामी भवों में वह अत्यन्त दुःख को प्राप्त करती है। वस्तुतः दान अधिकार की कथाओं द्वारा एक ओर सम्पन्न वर्ग को तृष्णा से प्राप्त होने वाले दुःखों से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है। वहीं दूसरी ओर निर्धनजन के आँसूओं को पोंछने का कार्य भी किया गया है।
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