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के उदाहरण द्वारा, जिसे शैवाल के बीच में रहने वाले एक छिद्र से ज्योत्सना सौन्दर्य दिखलाई पड़ा था, जब वह पुनः अपने साथियों को लाकर उस मनोहर दृश्य को दिखाने लगा, तो वह छिद्र ही नहीं मिला, इस प्रकार त्यागमार्ग में सतत सावधानी रखने का संकेत इस अंश में बताया गया है।
प्राकृत साहित्य का इतिहास" ग्रंथ में प्राकृत आगमों में आगत कथाओं की संक्षिप्त परिचय इस प्रकार दिया गया है कि सूत्रकृतांग के द्वितीय खण्ड के प्रथम अध्याय में पुण्डरीक का दृष्टान्त कथा-साहित्य के विकास का अद्वितीय नमूना है। कथानक संकलन की दृष्टि से ज्ञाताधर्मकथा सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। ज्ञाताधर्मकथा में विभिन्न ज्ञात अर्थात् उदाहरणों तथा धर्मकथाओं के माध्यम से जैन धर्म के तत्त्व-दर्शन को समझाया गया है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में १९ अध्ययन हैं, जिनमें न्याय, नीति आदि के सामान्य नियमों को कथाओं द्वारा समझाने का प्रयत्न किया गया है। इन कथाओं में करु णा का महत्त्व, आहार का उद्देश्य, संयम जीवन की कठोर साधना, शुभ परिणाम, सम्यक् श्रद्धा का महत्त्व, अनासक्ति, महाव्रतों की उन्नति, वैराग्य, कपट का परिणाम, निदान आदि सभी विषयों पर प्रकाश डाला गया है। ये सभी कथाएँ मूल प्राकृत आगमो की वैश्विक संदेश का समर्थन करती हुई प्रतीत होती है। अन्तकृद्दशांगसूत्र आगम के कथानक भौतिकता पर आध्यात्मिक विजय का संदेश प्रदान करते हैं। कथानकों में सर्वत्र तप की उत्कृष्ट साधना दिखलाई देती है।
आख्यानक साहित्य की दृष्टि से उत्तराध्ययन सूत्र महत्त्वपूर्ण आगम ग्रंथ है। इस आगम ग्रंथ की गणना मूल सूत्रों के अन्तर्गत की जाती है। इस कथाग्रंथ को तीर्थंकर महावीर की अन्तिम देशना के रूप में स्वीकार किया गया है। उत्तराध्ययन में छत्तीस अध्ययन हैं, जिनमें धर्म, दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि की निर्मल धाराएँ प्रवाहित हैं। ये आख्यानक जहाँ एक ओर धर्मतत्त्व का प्रतिपादन करते हैं,वहीं दूसरी ओर तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं को भी प्रकाशित करते हैं।
अर्द्धमागधी आगम साहित्य के अतिरिक्त उपलब्ध शौरसेनी साहित्य में भी अनेक कथानकों के उल्लेख हैं। इस सम्पूर्ण साहित्य में कर्मसिद्धान्त एवं दर्शन निरूपण में कथानकों के बीज यत्र-तत्र प्राप्त हो ही जाते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के भावपाहुड में बाहुबली मधुपिंग, वशिष्ठमुनि, शिवभूति, बाहु, द्वीपायन, शिवकुमार, भव्यसेन आदि भावपूर्ण कथानकों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। तिलोयपण्णत्ति में ६३ शलाकापुरुषों के सम्बन्ध में मूलभूत प्रामाणिक सामग्री प्राप्त होती है। अर्द्धमागधी और शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध आगम-साहित्य में कथाएँ सूत्रशैली में उपलब्ध होती हैं और इन आगम-कथाओं का पूर्ण विकास नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका-साहित्य में हुआ है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आगमयुगीन कथाओं का लक्ष्य शुद्ध मनोरंजन की अपेक्षा मानव का नैतिक आध्यात्मिक कल्याण ही रहा है। ये समस्त कथाएँ धर्म-दर्शन सम्बन्धी किसी सिद्धान्त को दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत करती हैं। इनकी प्रकृति उपदेशात्मक है। इसीलिए कथानकों का वातावरण एवं परिवेश धार्मिक स्थानों, व्यक्तियों एवं कथोपकथन से ओतप्रोत है। निःसन्देह आगमयुगीन कथाएँ अपने समय के धार्मिक नियमों का विवेचन करने में सक्षम हैं।
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