Book Title: Universal Values of Prakrit Texts
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Bahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan

Previous | Next

Page 314
________________ प्राकृत वाङ्मय में कथा साहित्य का उदय ईसा की लगभग चौथी शताब्दी से प्रारम्भ होकर सोलहवीं - सत्रहवीं शताब्दी तक चलता है। इसमें कथा, उपकथा, अंतर्कथा, आख्यान, दृष्टान्त, वृत्तान्त और चरित आदि कथा के अनेक रूप दिखाई देते हैं। वाक्कौशल, प्रश्नोत्तर, उत्तर-प्रत्युत्तर, प्रहेलिका, समस्यापूर्ति, सुभाषित, सूक्ति, कहावत, गीत, प्रगीत, चर्चरी, गाथा, छन्द आदि का यथेष्ट उपयोग किया गया है। ___ अर्धमागधी-प्राकृत साहित्य में विपुल कथा-साहित्य की संरचना की गई है, जिसमें आचार-मीमांसा, धर्म-निरूपण आदि की प्रधानता है। गूढ से गूढ विचारों एवं गहन अनुभूतियों को सरलतम रूप में जन-मानस तक पहुँचाने के लिए तीर्थंकर, गणधर एवं आचार्यों ने कथाओं का आधार ग्रहण किया है। प्राकृत साहित्य में कथा की अनेक विधाएँ उपलब्ध होती है। जैसे वार्ता, आख्यान, कथानक, आख्यायिका, दृष्टान्त, उपख्यान आदि। __ जैनाचार्यों ने कथा के अनेक भेदों की चर्चा की है। जो अन्यत्र अनुपलब्ध है। हेमचन्द्राचार्य के काव्यानुशासन और उद्यो तनसूरि की कुवलयमाला कथा में प्राकृत कथा रूपों की विस्तृत चर्चा हुई है। जैन कथा-साहित्य के बीज अर्द्धमागधी में निबद्ध आगम साहित्य में उपलब्ध होते है , जिनका विकास निर्युक्त, भाष्य, चूर्णि और टीका ग्रंथों में कालचक्र से सम्पन्न हुआ। — दशवैकालिक सूत्र'' में प्रस्तुत वर्गीकरण के अनुसार इन कथाओं के तीन भेद प्राप्त होते हैं - १) अकथा, २) सत्कथा और ३) विकथा जिन कथाओं से मिथ्यात्व-भावना के उद्दीपनपूर्ण वर्णनों के कारण मोहमय मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होती है, ऐसी कथाओं को अकथा कहा गया है। जिन कथाओं में ज्ञान के साधनभूत तप, संयम, दान एवं शील जैसे सद् गुणों की प्रशस्ति निबद्ध की जाती है, उन्हें सत्कथा कहा जाता है। मूल आगम-साहित्य में कथाओं के मुख्यतः तीन रूप मिलते हैं। अर्थकथा, धर्मकथा और ' कामकथा'२ । आचार्य हरिभद्र ने मिश्रकथा को जोड़कर इनके चार प्रकारों की उदभावना की। किन्तु शैली की दृष्टि से कथाओं के पाँच भेद उपलब्ध होते हैं। सकल-कथा, उल्लास-कथा, खण्ड - कथा, उल्लाप-कथा, परिहास-कथा और संकीर्ण -कथा। प्राकृत कथासाहित्य का आदिस्रोत आगमसाहित्य ही है। तीर्थंकर महावीर के काल से प्रारम्भ हुई प्राकृत कथा साहित्य की धारा आज तक अनवरत प्रवाहित हो रही है। युगों-युगों के इस अन्तराल में इसने सिर्फ अपना रूप परिवर्तित किया है। आगमकालीन कथाओं की उत्पत्ति कतिपय उपमानों, सरूपकों और प्रतीकों से हुई है। डॉ.ए.एन.उपाध्ये ने आगमकालीन कथाओं की प्रवृत्तियों के विश्लेषण में बताया है कि “आरम्भ में जो मात्र उपमाएँ थीं उनको बाद में व्यापक रूप देने और धार्मिक मतावलम्बियों के लाभार्थ उनसे उपदेश ग्रहण करने के निमित्त उन्हें कथात्मक रूप प्रदान किया गया है।' प्राचीन आगम ग्रंथ आचारांग में कुछ ऐसे रूपक और प्रतीक मिलते हैं, जिनके आधार पर परवर्ती ग्रंथों में कथाओं का विकास हुआ। आचारांग सूत्र के छठे अध्ययन के प्रथम सूत्र में कहा गया है कि “से बेमि जहार्वा कुम्मे हरए विणिविट्ठचित्तेपच्छन्नपलासे उम्मग्गं से नो लहई भजंगा इव.......न लभंति मुक्खं ।' अर्थात् एक कछुए -- 272 -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368