________________
धर्म-परायण - अजितादेवी
पूर्वजन्म के सुसंस्कारों के साथ-साथ में यदि धर्मपरायणता एवं पति परायणता का मिश्रण हो जाये, तो महिला के जिस अन्तर्बाह्य शील-सौन्दर्य-समन्वित-स्वरूप का विकास होता है, उसी का चरम विकसित रूप था अजितादेवी (१०वीं सदी) का महान् व्यक्तित्व । वह गंग-नरेश के महामन्त्री एवं प्रदान सेनापति वीरवर चामुण्डराय की धर्मपत्नी थी। वह जितनी पतिपरायणा थी, उतनी ही धर्मपरायणा भी । उसके पति चामुण्डराय जब-जब प्रजाहित अथवा राष्ट्रसुरक्षा के कार्यों को सम्पन्न करने हेतु बाहर रहते थे, तब-तब उनके आंतरिक कार्यों की निगरानी की जिम्मेदारी उन्ही की रहती थी। कहते हैं कि जिस समय शिल्पी - साम्राट अरिष्टनेमि, अखण्ड-ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर अहर्निश बाहुबली - गोम्मटेश की मूर्ति के निर्माण में संलग्न था, तब अजितादेवी उसकी तथा उसके परिवार की सुविधाओं का बड़ा ध्यान रखती थी। जब तक उस मूर्ति का निर्माणकार्य पूर्ण सम्पन्न नहीं हुआ, तब तक वह स्वयं भी उस कार्य की समाप्ति पर्यन्त व्रताचरण, तप एवं स्वाध्याय पूर्वक अपने दिन व्यतीत करती रही और जब मूर्ति निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ, तो भक्ति-विभोर होकर उसने सर्वप्रथम देवालय परिसर स्वय साफ किया, धोया-पोंछा और देव-दर्शन कर अरिष्टनेमि तथा उसके परिवार के प्रति आभार व्यक्त किया और अपनी सासुमाता के पास जाकर गद्गद - वाणी में हर्षोत्फुल्ल नेत्रों से उन्हें उसकी सुखद सूचना दी।
तीर्थ-भक्ता गुल्लिकायज्जी
निष्काम भक्ति में कृत्रिम प्रदर्शन नहीं, बल्कि मन की ऋजुता, कष्टसहिष्णुता एवं स्वात्म - सन्तोष की जीवन-वृत्ति परमावश्यक है। वैभव-प्रदर्शन में तो मान - कषाय की भावना का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में अन्तर्निहित रहना स्वाभाविक है और इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है, परमश्रेठ गोम्मटेश की मूर्ति के प्रथम महामस्तकाभिषेक के समय की वह घटना, जब वीरवर चामुण्डराय ने केशरयुक्त शुद्ध दुग्ध के घड़ों के घड़े गोम्मटेश के महामस्तक पर उड़ेल दिये किन्तु वह उनकी कमर से नीचे तक न आ सका। पण्डित, महापण्डित, साधु, मुनि, आचार्य, उपस्थित राजागण आदि सभी आश्चर्यचकित, अनेक उपाय किये गये कि महामस्तकाभिषेक सर्वांगीण हो, किन्तु सभी के प्रयत्न असफल एवं सभी लोग निाश एवं उदास, अब क्या हो? किसी की भी समझ में नही आ रहा था कि आखिर शुभकार्य में वह विघ्न क्यों ? यह कष्टदायी उपसर्ग क्यों ? सभी की घोर - मन्त्रणा हुई। देर तक आकुल-व्याकुल होते हुये सभी ने यह निर्णय किया कि आज उपस्तित सभी भव्यजनों को अभिषेक का अवसर प्रदान किया जाया । जो भी चाहे, मंच पर आकर महामस्तकाभिषेक कर ले।
भीड़ में सबसे पीछे सामान्य घूमिल वस्त्र धारण किये हुए दरिद्र वृद्धा, जो बड़ी उमंग के साथ अभिषेक करने आई थी किन्तु भीड़ देखकर वह पीछे ही रह गई थी, उस घोषणा से उसे भी अभिषेक का सुअवसर मिल गया। उसके पास मूल्यवान धातु का घड़ा नहीं, केवल एक नारियल मात्र था। टिरकते-टिरकते वह मंच पर पहुंची और निष्काम भक्ति के आवेश में भरकर जैसे ही उसने नारिकेल - जल से परम आराध्य बाहुबली का भक्तिभाव से अभिषेक किया, उससे वह मूर्ति आपाद-मस्तक सराबोर होई। यह देखकर सर्वत्र जय-जयकार होने लगा। हर्षोन्मत्त होकर नर-नारीगण नृत्य करने लगे।
Jain Education International
258
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org