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चामुण्डराय ने उसी समय अपनी गलती का अनुभव किया और सोचने लगा कि सचमुच ही मुझे, सुन्दरतम मूर्ति-निर्माण तथा उसके महामस्तकाभिषेक में अग्रगामी रहने तथा कल्पनातीत सम्मान मिलने के कारण अभिमान हो गया था। उसी का यह फल है कि सबके मुझे अपमानित होना पड़ा है। इतिहास में इस घटना की चर्चा अवश्य आयेगी और मेरे इस अहंकार को भावी पीढ़ी अवश्य कोसेगी। उसी समय चामुण्डराय का अहंकार विगलित हो गया। वह माता गुल्लिकायजी के पास गया। विनम्रभाव से उसके चरणस्पर्श किये, उसकी बड़ी सराहना की और उसकी यशोगाथा को स्थायी बनाये रखने के लिये उसने ऑगन के बाहर, गोम्मटेश के ठीक सामने उसकी मूर्ति स्थापित करा दी। यही नही, गोम्मटेश की मूर्ति के दर्शनों के लिये दर्शनार्थ-गण जब जाने लगते है, तब प्रारम्भ में ही जो प्रवेश-द्वार बनवाया गया, उसका नामकरण भी उसी भक्त-महिला की स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये उसका नाम रखा गया - 'गुल्लिकायज्जी बागिलु' अर्थात् बेंगनबाई का दरवाजा।
उस दिन चामुण्डराय ने प्रथम बार यह अनुभव किया की प्रचुर मात्रा में धन-व्यय, अटूट-वैभव एवं सम्प्रभुता के कारण उत्पन्न अहंकार के साथ महामस्तकाभिषेक के लिये प्रयुक्त स्वर्णकलश भी, सहज-स्वाभाविक, निष्काम-भक्तियुक्त एक नरेटी भर नारिकेल-जल के सम्मुख तुच्छ है। यह भी अनुश्रति है कि वह गुल्लिकायजी महिला नहीं, बल्कि उस रूप में कुष्माण्डिनी देवी ही चामुण्डराय की परीक्षा लेने और उसे निरहंकारी बनाने की सीख देन के लिये ही वहाँ आई थी। विदुषी रत्न पम्पादेवी
हुम्मच के सन्न ११४७ ई. के एक शिलालेख में विदुषी पम्पादेवी का बड़े ही आदर के साथ गुणगान किया गया है। उसकी अनुसार वह गंग-नरेश तैलप तृतीय की सुपुत्री तथा विक्रमादित्य शान्तर की बड़ी बहिन थी। उसके द्वारा निर्मापित एवं चित्रित अनेक चैत्यालयों के कारण उसकी यशोगाथा का सर्वत्र गाना होता रहता था। उसके द्वारा आयोजित जिन-धर्मोत्सवों के भेरी-नादों से दिग-दिगन्त गूंजते रहते थे तथा जिनेन्द्र की ध्वजाओं से आकाश आच्छादित रहता था। कन्नड़ के महाकवियों ने उसके चरित्र-चित्रण के प्रसगं में कहा है कि - आदिनाथचरित का श्रवण ही पम्पादेवी के कर्णफूल, चतुर्विध-दान ही उसके हस्त-कंकण तथा जिन-स्तवन ही उसका कण्ठहार था। इस पुण्यचरित्रा विदुषी महिला ने उर्वितिलक जिनालय का निर्माण छने हुए प्राशुक -जल से केवल एक मास के भीतर कराकर उसे बड़ी ही धूमधाम के साथ प्रतिष्ठित कराया था। पम्पादेवी स्वयं पण्डिता थी। उसने अष्टविधार्चन-महाभिषेक एवं चतुर्भक्ति नामक दो ग्रन्थों की रचना भी की थी। पट्टरानी शांतलादेवी
श्रवणबेलगोला के एक शिलालेख में होयसल-वंशी नरेश विष्णुवर्द्धन की पट्टरानी शान्तलादेवी (१२वीं सदी) का उल्लेख बड़े ही आदर के साथ किया गया है। वह पति-परायणा, धर्म-परायणा और जिनेन्द्र-भक्ति में अग्रणी महिला के रूप में विख्यात थी। संगीत, वाद्य-वादन एवं नृत्यकला में भी वह निष्णाता थी। आचार्य
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