Book Title: Universal Values of Prakrit Texts
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Bahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
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धम्मपद २७९
सब धर्म अनात्मक हैं-आत्मरहित हैं। यह बात जब विवेकी प्रज्ञा से देखता है अर्थात् श्रेयावरण-मुक्त स्कन्धों को जान लेता है, तब दुःख के प्रति - दुःखमय लोक के प्रति उसमें वैराग्य होता है - राग नामक क्लेशावरण क्षीण होता है। यह विशुद्धि का - ज्ञेयावरण तथा क्लेशावरण से रहित तत्त्व का, निर्वाण का मार्ग है।
बुद्धत्व का महत्त्व
बोधिसत्त्व होकर बुद्धत्व तक पहुँचना ही साधना मार्ग का लक्ष्य था । अर्हत् एक क्षेत्र में एक समय बहुत हो सकते हैं, पर बुद्ध एक क्षेत्र में एक समय एक ही होते हैं। तथा साधारण लोगों की तरह सब जगह उत्पन्न नहीं होते . दुल्लभो पुरसाञो न सो सब्बत्थ जायति । यत्थ सो जयती धीरो तं कुलं सुखमेधति ॥
सब्बे धम्मं अनत्ताति यदा पञ्चार पस्सति । अथ निब्बिन्दति दुक्खे एस मग्गो विसुद्धिया ॥
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- धम्मपद १९३
पूर्ण रूप से उत्तम पुरुष दुर्लभ होता है, उसका जन्म सब जगह नहीं होता । जहाँ उसका जन्म होता है, उस कुल की सुखवृद्धि होती है।
धम्मपद में जहाँ सामान्य जन के लिए सुगम एवं सरल भाषा में उपदेश हैं, वहीं साधक के लिए गूढ अर्थों वाली गाथाएँ भी भरी पड़ी हैं। यथा -
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छन्दजातो अनक्खाते मनसा च फुटो सिया ।
कामेसु च अप्पटिबद्धचित्तो उर्द्धसोतो ति बुवति || धम्मपद २१८
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इन गाथाओं की व्याख्या करते हुए शांति भिक्षु शास्त्री ने लिखा है कि
धर्मचर्या के द्वारा जो सुख प्राप्त होता है, उसमें कायेन्द्रिय की बाह्य स्पर्शो से विमुखता हो जाती है। चित्तेन्द्रिय को दूर-दूर की उड़ान लेना भूल जाता है। वह लगाम ढीली कर लिए गए घोड़े के समान सरपट भाग नहीं पाती, वह अन्तर्मुखी हो जाती है। प्राण भी दक्षिण तथा वाम नासापुटों की राह सदा की भाँति नहीं चलते रहते प्रत्युत् मध्यमाप्रतिपदा (बीच की नाड़ी) का आश्रय लेकर अपनी अपूर्व व्याप्ति का अपूर्व क्षेत्र में प्रातिहार्य (चमत्कार) दिखलाने लगते हैं। नीचे की ओर बहने वाला स्रोत बन्द होता है तथा उसका प्रवाह ऊपर की ओर हो जाता है । बुद्धवचनों के अनुसार छन्दोत्पाद (अभिलाषोत्पाद) अनक्ख्यात में होता है अर्थात् वाक्यप्रपंच द्वारा अप्रकाशनार्ह रहस्य के विषय में होता है, वह मन के द्वारा स्फुट होता है। (और स्फुटन में उस अभिव्यंजना) में चित्त काम विषयों के साथ बांधने वाला बन्धन टूट जाता है और वह उर्ध्वस्रोत कहलाने लगता है। इस प्रकार भाव को व्यंजित करने वाली धम्मपद की गाथा को शांतिभिक्षुशास्त्री ने कहा है कि अक्षर-अक्षर सुवर्णलिखित से भी अधिक मूल्यवान है।
सब्बे धम्मं अनत्ताति यदा पञ्जार पस्सति ।
अथ निब्बिन्दति दुक्खे एस मग्गो विसुद्धिया ॥
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धम्मपद २७९
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