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१. छन्दोविद्या :
इस ग्रन्थ की २८ पत्रात्मक एक मात्र प्रति दिल्ली के पंचायती मन्दिर के शास्त्रभण्डार में मौजूद है , जो बहुत ही जीर्ण-शीर्ण दशा में हैं। और जिसकी श्लोक संख्या ५५० के लगभग है। इसमें गुरू और लघु अक्षरों का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है जो दीर्घ है, जिसके पर भाग में संयुक्त वर्ण है , जो बिन्दु (अनुस्वार-विसर्ग से युक्त हैपादान्त है वह गुरू है, द्विमात्रिक है और उसका स्वरूप वक्र (?) है। जो एक मात्रिक है वह लघु होता है और उसक रूप शब्द-वक्रता से रहित सरल (१) है !
दीहो संजुत्तवरो विंदुजुओ यालिओ(?) विचरणंते।
स गुरु वकं दुतत्तो अण्णो लहु होइ शुद्ध एकअलो ॥ ८॥ इसके आगे छन्दशास्त्र के नियम-उपनियमों तथा उनके अपवादो आदि का वर्णन किया है। इस पिंगल ग्रन्थ में प्राकृत संस्कृत अपभ्रंश और हिन्दी इन चार भाषाओं के पद्यों का प्रयोग किया गया है। जिनमें प्राकृत और अपभ्रंश भाषा की प्रधानता है उनमें छनदों के नियम , लक्षण और उदाहरण दिये हैं । संस्कृत भाषा में भी नियम और उदाहरण पाये जाते हैं । और हिन्दी में भी कुछ मिलते हैं। इससे कवि की रचना चातुर्य और काव्य प्रवृत्ति का परिचय मिलता है। २. पंचाध्यायी :
कवि ने इस ग्रन्थ को पाँच अध्यायों में लिखने की प्रतिज्ञा की थी। वे उसका डेढ़ अध्याय ही बना सके , खेद है कि बीच में ही आयु का क्षय होने से वे उसे पूरा नहीं कर सके। यह समाज का दुर्भाग्य ही है। कवि ने आचार्य कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्राचार्य के ग्रन्थों का दोहन करके इस ग्रन्थ की रचना की है । ग्रन्थ में द्रव्य सामान्य का स्वरूप अनेकान्त दृष्टि से प्रतिपादित किया गया है। और द्रव्य के गुण पर्याय तथा उत्पाद व्ङ्ग ध्रौव्य का अच्छा विचार किया है । द्रव्य, क्षेत्र , काल, भाव की अपेक्षा उसके स्वरूप का निर्बाध चिन्तन किया है । नयों के भेद और उनका स्वरूप , निश्चय नय और व्यवहार नय का स्पष्ट कथन किया है। विशेष कर सम्यग्दर्शन के विवेचन में जो विशेषता दृष्टिगोचर होती है वह कवि के अनुभव की द्योतक है। अन्य प्राकृत रचनाएं : राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों में भट्टारकों द्वारा प्रणीत जो प्राकृत ग्रन्थ उपलब्ध हैं उनमें निम्नांकित प्रमुख हैं १. श्रावकाचार :
___ भट्टारक पद्मनंदि ने प्राकृत में श्रावकाचार लिखा है । इस ग्रन्थ की ५ पाण्डुलिपियाँ भट्टारकीय ग्रन्थ भण्डार नागौर में उपलब्ध हैं । प्राचीन प्रति सं. १६०० की उपलब्ध है। आत: यह ग्रन्थ इसके पूर्व लिखा गया होगा । सं. १६७२ में लिखी प्रति में जो प्रशस्ति है उसमें भट्टारकों का अच्छा वर्णन किया गया है।
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