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वैश्विक महत्व की सूक्तियाँ
महाकवि स्वयम्भू की रचनाओं में उनके व्यावहारिक अनुभव सूक्तियों के रूप में प्राप्त होते हैं। आज के विश्व को इन सूक्तियों से प्रोत्साहन मिलता है। कवि को यह विश्वास है कि उसके काव्य-वचन सुभाषित की तरह अमर रहेंगे - होन्तु सुहासिय वयणाइँ (प.च., १.१) । इस ग्रन्थ की कतिपय सूक्तियाँ यहाँ द्रष्टव्य हैं :-१२ १- तिह जीवहि, जिह परिभमइ कित्ति - ऐसे जिओ, जिससे कीर्ति फैले। २- तिह हसु, जिह ण हसिज्जइ जणेण - ऐसे हंसो, जिससे लोग तुम पर न हंसे। ४- तिह भुज्जु, जिह ण मुच्चहि धणेण - इतना खर्च करो (भोग करो) जिससे निर्धन न हो जाओ। ४- तिहं रज्जु पाले, जिह णवइ सत्तु - ऐसा शासन करो, जिससे शत्रु भी झुक जाय। ५- जो जस भायण्ड सो तं धरइ - जिसकी जितनी योग्यता है उसे उतना ही मिलता है। ६- वोलिज्जइ तं जं णिव्वहइ - जितना निभा सको उतना ही बोलो।
सन्दर्भ
रामसिंह तोमर- प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभावः प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रयाग। प्रो. हरिवंश कोछड़ - अपभ्रंश साहित्य, भारतीय साहित्य मन्दिर, दिल्ली। जैन, हीरालाल, णायकुमारचिउ की भूमिका, दिल्ली डॉ. शम्भूनाथ पाण्डे - अपभ्रंश और अवहट्ठ एक अन्तर्यात्रा, चौखम्भा पब्लिशर्स वाराणसी। भायाणी, एच.सी., पउमचरिउ की भूमिका, बम्बई हरीश, आदिकालीन हिन्दी साहित्य उपाध्याय, संकटा प्रसाद, कवि स्वयम्भू , अलीगढ़ पउमचरिउ, प्रथम संधि शर्मा, योगेन्द्रनाथ, स्वयम्भू एवं तुलसी के नारीपात्र, मेरठ, १९७९ पउमचरिउ, सम्पादक - भायाणी, बम्बई सोगानी, के.सी., अपभ्रंश अभ्यास सौरभ, जयपुर जैनविद्या (शोधपत्रिका) - स्वयम्भू विशेषांक, श्रीमहावीरजी, १९८४
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