Book Title: Universal Values of Prakrit Texts
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Bahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan

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Page 284
________________ भट्टारक शुभचन्द्र शुभचन्द्र भट्टारक विजयकीर्ति के शिष्य थे । वे अपने समय के प्रसिद्ध भट्टारक , साहित्य प्रेमी , धर्मप्रचारक एवं शास्त्रों के प्रबल विद्वान थे। श्री वी. पी. जोहरापुरकर के मतानुसार ये संवत् १५७३ में भट्टारक बने। और वे इसी पद पर संवत् १६१३ तक रहे । शुभचन्द्र शास्त्रों के पूर्ण मर्मज्ञ थे। ये षट्भाषा कवि-चक्रवर्ती कहलाते थे। छह भाषाओं में सम्भवतः संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती एवं राजस्थानी भाषाएँ थीं। ये त्रिविधि विद्याधर (शब्दागम, युक्तागम एवं परम्परागम) के ज्ञाता थे। वे स्वयं ग्रन्थों का निर्माण करते, शास्त्रभण्डारों की सम्हाल करते, अपने शिष्यों से प्रतिलिपियाँ करवाते तथा जगह-जगह शास्त्रागार खोलने की व्यवस्था कराते थे। वास्तव में ऐसे ही सन्तों के सत्प्रयास से भारतीय साहित्य सुरक्षित रह सका है। १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका : प्राकृत भाषा में निबद्ध स्वामी कार्तिकेय की बारसअणुपेक्खा एक प्रसिद्ध कृति है। इसमें आध्यात्मिक रस कूट-कूट कर भरा हुआ है । तथा संसार की वास्तविकता का अच्छा चित्रण मिलता है । इसी कृति की संस्कृत टीका भट्टारक शुभचन्द्र ने लिखी जिससे इसके अध्ङ्गन , मनन एवं चिन्तन का समाज में और भी अधिक प्रचार हुआ। इस ग्रन्थ को लोकप्रिय बनाने में इस टीका को भी काफी श्रेय रहा। टीका सरल एवं सुन्दर है तथा गाथाओं के भावों को ऐसी व्याख्या अन्यत्र मिलना कठिन है । ग्रन्थ में १२ अधिकार हैं। प्रत्येक अधिकार में एक-एक भावना का वर्णन है। २. अंगपण्णत्ती - यह प्राकृत भाषा का ग्रन्थ है। इसमें २४८ गाथाएँ दी हुई है, जिनमें अंग पूर्वादि का स्वरूप और पदादि की संख्या दी हुई है । ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के सिद्धान्तसारादिसंग्रह में प्रकाशित हो चुका है। ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है।' ३. चिन्तामणि व्याकरण : भट्टारक शुभचन्द्रसूरि ने वि . सं . १६०५ में इस ग्रन्थ की रचना की थी । इसमें कुल १२२४ सूत्र हैं। हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण का इसमें अनुसरण किया गया है । इस ग्रन्थ पर लेखक की सोपज्ञवृत्ति भी है। भट्टारक वीरचन्द्र वीरचन्द्र भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य थे और इन्हीं की मृत्यु के पश्चात् ये भट्टारक बने थे। यद्यपि इनका सूरत गादी से सम्बन्ध था , लेकिन ये राजस्थान के अधिक समीप थे और इस प्रदेश में खूब विहार किया करते थे । सन्त वीरचन्द्र प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् थे । व्याकरण एवं न्यायशास्त्र के प्रकाण्ड वेत्ता थे। छन्द , अलंकार एवं संगीत के मर्मज्ञ थे। -242 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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