Book Title: Universal Values of Prakrit Texts
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Bahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
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प्रकृति वर्णन -
पउमचरिउ में प्रकृतिवर्णन के उल्लेख वस्तुगणना, अलंकार, उद्दीपन एवं मानवीकरण के रूप में मिलते हैं। ऋषभजिन शकटमुख नाम के उद्यान में आकर ठहरते हैं, पउमचरिउ में उस उद्यान के विषय मे लम्बी सूची गिनाई है।" नन्दनवन के वृक्षों की परिगणना करते करते तो स्वंयभू थक से गये प्रतीत होते हैं और वे कह उठते हैं कि और भी बहुत से वृक्ष हैं जिन्हें कौन समझ सकता है। वरुणकुमारों के साथ रावण ऐसे क्रीड़ा कर रहा है मानो बैल जलधाराओं के साथ खेल रहा हो । यहाँ प्रकृति का अलंकार रूप में चित्रण मिलता है। आते हुए वसंत की ऋद्धि देखकर मधु, इक्षुरस और सुरा से मस्त भोली-भाली नर्मदा रूपी बाला ऐसे मचल उठी मानों कामदेव की रति हो, यहाँ उद्दीपन रूप में प्रकृति का चित्रण है। कहीं पहाड़ों के शिखर इस तरह कांतिहीन हो रहे थे, मानों काले रंग से पुते हुए दुष्ट मुख हों, यहाँ मानवीकरण के रूप में प्रकृति का चित्रण हुआ है । स्वयम्भू के पउमचरिउ में विविध अलंकार प्रयुक्त हुए हैं।" युद्ध के वर्णन में जब लक्ष्मण को शक्ति लगी तो कवि कहता है कि लक्ष्मण ने उस शक्ति का उसी प्रकार धारण किया जिस प्रकार शिवजी के द्वारा बायें अंग में पार्वती को धारण किया जाता है। यथा -
वि धरिय एंति णारायणेण, वामहदे गोरि व तिणयणेण । - प.च. ३१.१३
इसी प्रकार राजा दशरथ का सेवक कंचुकी अपनी वृद्धावस्था का वर्णन करते हुए कहता है कि मेरी प्रथम आयु यौवन के सिर पर बुढ़ापे की सफेदी इसी प्रकार आकार लग गयी है जैसे कोई असती स्त्री सिर पर आ बैठे-पढमासू जर धवलन्ति आय, पुणु असइ व सीसवलग्ग जाय । - प.च., २२.२
रस- रसभिव्यक्ति की दृष्टि से पउमचरिउ में हमें मुख्यतः शान्त, वीर, श्रृंगार और करुण रस मिलते हैं। करुण रस की अभिव्यक्ति पउमचरिउ में अनेक स्थलों पर हुई है। शान्त रस के रूप में पउमचरिउ में अनेक ऐसे स्थल मिलते हैं जिनमें संसार को तुच्छ, नश्वर और दुःख बहुल बतलाकर तथा शरीर की क्षणभंगुरता का प्रतिपादन कर संसार के मिथ्यात्व का उपदेश देते हुए उसके प्रति विरक्ति का भाव पैदा किया गया है। ऐसे निर्वेद भाव के स्थलों मे शान्त रस अभिव्यक्त हुआ है।
अलंकार
उपमा कालिदासस्य के समान स्वयंभू का सर्वप्रिय अलंकार उत्प्रेक्षा है। उत्प्रेक्षा का प्रयोग पउमचिरउ में पद-पद पर अनायास मिलता है। कडवक के कडवक उत्प्रेक्षा की लड़ियों से भरे हैं। जैसे रावण ने अचानक मन्दोदरी को देखा मानों भ्रमर ने अभिनव कुसुममाला देखी हो । मन्दोदरी के पैरों के बजते हुए नूपुर ऐसे मालूम होते हैं मानो बन्दीजन मधुर शब्दों का पाठ कर रहे हों। चढ़ती हुई रोमराजि ऐसी थी मानों काली बालनागिन ही शोभित हो रही हो, आदि-आदि। वनगमन के समय के वर्णन में कवि कहता है कि जानकी सीता अपने घर से उसी प्रकार निकल गयी मानों हिमवंत पर्वत महा नदी गंगा निकली हो - णिय मंदिरहो विणिग्गय जाणइ, णं हिमवंतहो गंग महाणइ । - प.च. २३.६
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