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६८ हजार ५ गाथाओं में प्राकृत भाषा में टीका लिखी है। ६. उक्त १ से ५ टीकाएँ वर्तमान में उपलब्ध नहीं हो सकी हैं। ७. आचार्य वीरसेन एवं आचार्य जिनसेन ने धवल, जयधवल एवं महाधवल नामक मणिप्रवाल शैली पर आधारित
संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में गद्य एवं पद्यमय काव्य की रचना कर दिगदिगंत में अपार यश को प्राप्त किया है। परवर्ती काल में प्रस्तुत ग्रंथ पर अनुवाद कार्य
षट्खण्डागम के प्रथम पाँच खण्डों का धवला टीका के साथ सम्पादन-अनुवाद प्रो.हीरालाल जी जैन ने कुछ प्रकाण्ड विद्वानों के सहयोग से सन् १९३४ से १९५४ तक २० साल के दीर्घ परिश्रम के साथ १६ खण्डों का प्रकाशन कराया है। प्रथम संस्करण १६ खण्डों का जीवराज ग्रंथमाला सोलापुर से प्रकाशित है। इनका संपूर्ण ३९ भागों का मराठी अनुवाद कार्य सोलापुर में वर्तमान में हो रहा है।
छठवें खण्ड महाबन्ध का सम्पादन एवं अनुवाद कार्य पं.फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने किया है, जो सात खण्डों में भारतीय ज्ञानपीठ, नईदिल्ली से प्राकशित हो चुका है।
आचार्य गुणधर द्वारा कृ त कषायपाहुड का जयधवला टीका के साथ सम्पादन एवं अनुवाद पं.फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री एवं पं. कै लाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री के द्वारा १५ खण्डों में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, मथुरा से प्रकाशित है। इस अनुवाद कार्य के लिए सर्वप्रथम दिगम्बर जैनमठ, मूडबिद्रि के भट्टारक श्री चारूकीर्ति की अनन्त कृपा रही है कि उन्होंने इन ग्रंथों को अपने मठ में ताडपत्रीय ग्रंथों को सैकड़ों वर्षों से संरक्षित रखा था और कृपापूर्वक अनुवाद कार्य हेतु ग्रंथ प्रदान किया था।
परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री १०८ शांतिसागर जी मुनिमहाराज की असीम कृपा से फलटण महाराष्ट्र में समग्र ग्रंथों का ताम्रपत्र पर लेखन कार्य करवा कर श्री चन्द्रप्रभ जिनालय, फलटण, महाराष्ट्र में विराजमान किया गया है। इसका एक ग्रंथ ताम्रपत्र का मुम्बई के कालवा के जिनालय में विराजमान होने का मंतव्य प्राप्त होता है।
वर्तमान में कर्नाटक प्रान्त के श्रीक्षेत्र श्रवणबेलगोला के धर्मपीठाधिपति परमपूज्य जगद्गुरु कर्मयोगी स्वस्तिश्री चारूकीर्ति भट्टारक महास्वामि जी ने अथक पश्रिम से प्राकृत धवलत्रय ग्रंथों का कन्नड अनुवाद एवं प्रकाशन योजना प्रारम्भ कर दिया है। कुल ३९ भागों में से अबतक धवला के १६, जयधवला के ५ और महाधवला के ५ भाग प्रकाशित हैं और शेष का कार्य प्रगति पर हैं। यह एक कन्नड जैन साहित्य में अपूर्व ऐतिहासिक घटणा बन गई है।
षट्खण्डागम ग्रंथ शौरसेनी प्राकृत भाषा में रचित है। उसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं -
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