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स्वयम्भू के जन्म-स्थान एवं जन्मकाल सुनिश्चित नहीं हैं, किन्तु उनकी रचनाओं से ज्ञात होता है कि वे यापनीय संघ से सम्बन्धित थे। कर्नाटक उनकी काव्य-साधना का प्रमुख क्षेत्र था। कवि के जन्म-काल के सम्बन्ध में विद्वानों के विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि वे ई. ६७७ से ई. ९५९ के बीच कभी हुए थे। कवि ने आचार्य जिनसेन (ई. ७८३) को अपने 'रिठ्ठणेमिचरिउ' में स्मरण किया है तथा महाकवि पुष्पदन्त (ई. ९५९) ने स्वयम्भू का उल्लेख किया है। अतः महाकवि स्वयम्भू आठवीं शताब्दी का उत्तरार्ध एवं नवीं के पूर्वार्ध में हुए होंगे।
महाकवि स्वयंम्भू की अभी का तक प्राप्त कुल तीन रचनाएँ हैं - १. पउमचरिउ, २. रिठ्ठणेमिचरिउ और ३. स्वयम्भूछन्द। अनुमान से उनके तीन ग्रन्थ और माने जाते हैं - सुद्धयचरिउ, पंचमीचरिउ एवं स्वयम्भू व्याकरण। ये ग्रन्थ अभी उपलब्ध नहीं हुए हैं। इनकी उपलब्ध रचनाओं का विशेष परिचय डॉ. उपाध्याय ने अपने शोध-प्रबन्ध में दिया है।
पउमचरिउ लिखने का उद्देश्य -
पउमचरिउ के निर्माण में कवि स्वयंभू का प्रमुख उद्देश्य इस ग्रंथ को काव्य बनाना रहा है। पउमचरिउ के आरंभ में मंगलाचरण के तुरन्त बाद कवि कहते हैं कि दीर्घ समास जिसके मृणाल हैं, शब्द पत्ते हैं, अर्थ के पराग से जो सुवासित हैं और विद्वान् भ्रमर जिसका रस पान करते हैं, स्वयंभू कवि का ऐसा काव्य-कमल जयशील हो। इस रामायण काव्य के माध्यम से कवि अपने आपको प्रकट करता है। तदनन्तर आचार्य रविषेण के प्रसाद से कविराज स्वयंभू ने अपनी बुद्धि से रामकथा का अवगाहन किया। अपने आपको कविराज तथा अपने ग्रंथ को काव्य ग्रन्थ कहने से स्वयंभू का अपने ग्रन्थ को काव्य ग्रन्थ बनाने का उद्देश्य स्पष्ट होता है । कवि कहता है कि मैं व्याकरण आदि नही जानता, फिर भी इस काव्य - प्रयत्न को नहीं छोड़ पा रहा हूँ और छन्दबद्ध काव्य की रचना करता हूँववसाउ तो वि णउ परिहरमि, वरि रड्डावध्दु कव्वु करमि। -प.च. १.३
कवि की विनम्रता
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पुराणों की रीति के अनुरूप काव्य के आरम्भ में कवि के विनम्रता पूर्वक आत्म-निवेदन का उल्लेख मिलता अपभ्रंश के महाकवि पुष्पदन्त ने स्वयंभू कवि को व्यास, भास, कालिदास, भारवि, बाण, चतुर्मुख आदि की श्रेणी में विराजमान किया है। अन्य कवियों ने उन्हें महाकवि, कविराज, कविराज चक्रवर्ती जैसी उपाधियों से सम्मानित किया है। हिन्दी भाषा एवं साहित्य के जाने माने समीक्षक राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें हिन्दी के पाँचों युगों के कवियों में सबसे बड़ा बताया है। ऐसे प्रतिभा सम्पन्न कवि स्वयंभू बुधजनों के प्रति निवेदन करते हैं कि 'मुझ जैसा अन्य कोई कुकवि नहीं है। मैं व्याकरण नहीं जानता, वृत्तियों, सूत्रों, प्रत्याहारों, संधियों एवं विभक्तियों का मुझे ज्ञान नहीं हैं, पंच महाकाव्यों और भारत के नाट्यशास्त्र को मैंने सुना नहीं .... आदि-आदि। उनकी यह विनम्रता बुधजनों के प्रति ही है। दुष्टों की तो वे उपेक्षा करते हुए कहते हैं कि दुष्टजनों की अभ्यर्थना करने से क्या लाभ, , जिसे
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