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रोग - आगमों में आचारंगसूत्र प्रथम आगम है इसमें कहा है १. गंडी अहवा २. कोढी ३.रायसी ४. अवमरिय ५. काणिय ६. भूमिय ७. कुणिय ८. खुज्जिय ९. उदारिं १०. पांस ११. मूयं १२. सूणीयं १३. गिलासणिं वेवइ १४. पीढसप्पि १५. सिलिवयं १६. महुमेहणिं सोलस एस रोगा । (आ. ६/५/१७२). इस पर वृत्तिकार शीलंकाचार्य ने इन रोगों की उत्पत्ति के कारण भी निर्द्रिष्ट किए हैं जैसे - १. खुज्जियं - कुवड़ापन - "मातापितृशोणित-शुक्रदोषण गर्भस्थ दोषो दभबा : कुब्ज - वामनकादये ।" माता-पिता के शोणित एवं शुक्र के दोष गर्भस्थ दोष से शिशु कुब्ज, वामन, पंगु, काणा, मूक, आदि होता है । रोग का कारण और निदान -
___ मधुमेह/ प्रमेह के बीस भेद गिनाए हैं। यह मधुमेह कफ के कारण, वातज्वर के कारण उत्पन्न होता है । द्वितीय श्रुतस्कंध की प्रथम-चुलिका के द्वितीय उद्देसक में रोगों के निदान की इस प्रकार चर्चा की है
"शीतोदकेन वा उष्णोदकेन वा उच्छोलेज त्ति ईषत्लोचनं विदघ्यात् प्रक्षालयेत् ।"
ज्वर से पीड़ित व्यक्ति के लिए शीतजल से या उष्णजल से प्रक्षालन करें उसके नेत्रों को धोएं । सूत्रकृतांग में गण्डरोग एवं उसका निदान भी दिया है । इसी में कृष्ट रोग के लक्षण, कारण और उपचार तथा भेद भी गिनाएं हैं । यदि उत्पल कृष्ठरोग है तो उसका उपचार अगर,तगर,चंदन के लेप से करें । लोधृ कुंकुम के लेप से कुष्ठरोग शान्त होता है । सूत्र कृतांग - ३/४/१०) विपाकसूत्र में भस्मकव्याधि का विस्तार से विवेचन है । (विपाकसूत्र-१५८)
अधिकपान, अधिक भोजन और अधिक वायु सेवन विष के समान हैं (उत्त. १६/१३)। उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका में (१६३) भी रोग के कारण के साथ रोगनिदान के लिए चिन्ता, वमन, विरेचन, धूम-पान नहीं, स्नान आदि की पद्धति को भी उपयोगी माना है (उत्त १५/८) । जोणिपाहुड (७२) में (लंघण निवाय-सेवा उण्हो य यूपाण-मेयखइएहिं )लंघन, निपात (विरेचेन) शुश्रुषा, उस्णता, उद्दीपन, स्वेदन किया से रोग उपचार की विधि का भी विधान किया है। औषधि
आमरिस-खेल-जल्ला-मल-विड-सव्वा-ओसहि- पत्ता ।
मुहदिट्टि - णिव्विसाओ अट्ठविहा औसही रिद्धी ॥-तिलोयपण्णत्ति ४/१०७८) १. आमरिस - आमशोषधि - (शरीर स्पर्श से रोग मुक्ति ) २. खेल - क्षेलोषीध - (लार, कफ, अक्षिमल नासिका मल की शान्ति) ३. जल - जल्लौषधि - (स्वेदजल, अंगराज की समाप्ति) ४. मल - मलौषधि -( जीभ, ओंठ, दांत, नासिका, श्रोत्रादि का मल)
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