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चित्त का महत्त्व __कायानुस्मृति से बौद्ध साधना का आरंभ होता है। कायानुस्मृति के साथ साधक चित्तानुस्मति में भी लगा रहता है। चित्तानुस्मृति में लगा साधक अपने चित्त को देखता है कि उसका चित्त “ राग के कारण मलिन तो नहीं है, द्वेष के कारण कुचेष्टा तो नहीं करना चाहता, स्वार्थ परायण तो नहीं है, परहित विमुख तो नहीं है। यों चित्त की अवस्था देखते हुए, चित्त सुप्रसन्न, शान्त तथा परोन्मुखी रहता है।" प्रसन्न चित्त की महिमा अपार है। प्रसन्न चित्त के द्वारा किये गये कार्य तथा बोले गये वचन से सुख ही सुख होता है और वह सुख मनुष्य के पीछे परछाई की भाँति चलता है, कभी भी अलग नहीं होता। तथागत का वचन है -
मनोपुब्बागमा धम्मा मनोसेट्ठा मनोमया। मनसा चे पसन्नेन भासति वा करोति वा।
ततो नं सुखमन्वेति छायाव अनपायिनी ॥ - धम्मपद २ चित्त को निर्मल बनाने के साथ वेदना में अर्थात् सुख-दुःख की अवस्थाओं में तथा अन्य धर्मों की मानसिक अवस्थाओं में साधक जागरूक रहता है। वेदनानुस्मृति तथा धर्मानुस्मृति के प्रसंग में चित्त की ही प्रधानता रहती है। " चित्त की साधना से ही उनका विक्षेप शान्त होता है।" वस्तुतः चित्त के रास्ते पर लाना ही साधक का प्रधान कार्य है। चित्त की साधना के प्रधान फल की ओर तथागत ने यों संकेत किया है -
दिसो दिसं यं तं तं कयिरा वेरी वा पन वेरिनं ।
मिच्छा -पणिहितं चित्तं पापियों नं ततो करे ॥ - धम्मपद ४२ यदि चित्त बुराई में पड़ गया तो बह, एक वैरी दूसरे वैरी के प्रति जितना अपकार करता है, उससे कहीं अधिक अपकार करेगा। किन्तु चित्त यदि अच्छाई में लग गया, तो माता पिता तथा अन्य स्वजन जितना कल्याण करते हैं, उनसे कहीं अधिक कल्याण करेगा।
नं तं माता पिता कयिरा अझे वापि च जातका। सम्मा-पणिहितं चित्तं सेय्यसों नं ततो करे ॥ - धम्मपद ४३
आत्मकल्याण
आत्मकल्याण की बहुत प्रशंसा की गयी है। धम्मपद में तथागत का वचन है -
अत्तदत्यं परत्येन बहुनापि न हापये।
अत्तदत्थमभिज्ञाय सदत्यपसुतो सिया ||- धम्मपद १६६ परार्थ बहुत हो तो भी आत्मार्थ नहीं त्यागना चाहिए । आत्मार्थ क्या है, इसे जानकर अपने कल्याणार्थ में लगे रहना चाहिए।
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