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'यमकवग्ग ' (वर्ग - १) में अधिकरत ऐसे उपदेशों का संग्रह है, जिनमें दो-दो बातें जोड़े के रूप में आती हैं। “ मुझे गाली दी , मुझे मारा , मुझे हरा दिया , मुझे लूट लिया " ऐसा जो मन में बांधते हैं, उनका वैर कभी शान्त नहीं होता. (१/१४) अहिंसा का यह सनातन सन्देश भी कितना मार्मिक है, यहाँ वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता। अवैर से ही वैर शान्त होता है, यही सनातन धर्म है। " (१/५), बड़ी-बड़ी संहिताओं का भाषण करने वाले किन्तु उनके अनुसार आचरण न करने वाले व्यक्ति की ‘धम्मपद ' में उस ग्वाले के समान कहा गया है, जिसका काम केवल दूसरों की गायों को गिनना है। (१/१९), बौद्ध चिन्तकों ने शारीरिक संयम के मूल को सदा मन के अन्दर देखा था, इसीलिए धम्मपद की प्रथम गाथा मन की महिमा का वर्णन करती हुई कहती है, “ मन ही सब धर्मों (कायिक, वाचिक, मानसिक कर्मों) का अग्रगामी है, मन ही उनका प्रधान है। सभी धर्म मनोदय हैं।" आत्मसंयम, वास्तविक श्रामण्य और सत्संकल्प के स्वरूप को महत्त्व के वर्णन इस वर्ग के अन्य विषय हैं। 'अप्पमादवग्ग ' में प्रमाद की निन्दा और अ-प्रमाद की प्रशंसा की गई है। अप्रमाद के द्वारा ही अनपम योग-क्षेम रूप निर्वाण को प्राप्त किया जाता है। (२/३), अप्रमाद के कारण ही इन्द्र देवताओं में श्रेष्ठ बना है। (२/१०), अप्रमाद में रत भिक्षु को ही यहाँ ‘निर्वाण के समीप' (निब्बाणस्सेव सन्तिके) कहा है। (२/१२), 'चित्तवग्ग ' (वर्ग ३) में चित्त-संयम का वर्णन हैं। जितनी भलाई माता-पिता कर सकते हैं, न दूसरे भाई-बन्धु , उससे अधिक भलाई ठीक मार्ग पर लगा हुआ चित्त करता है। ‘पुप्फवग्ग ' (वर्ग ४) में पुष्प को आलम्बन मान कर नैतिक उपदेश दिया गया है। सदाचार रूपी गन्ध की प्रशंसा करते हुए कहा गया है, तगर और चन्दन की जो यह गन्ध फैलती है, वह अल्पमात्र है। किन्तु यह जो सदाचारियों की गन्ध है। वे देवताओं में फैलती है।
'बालवग्ग ' में मूल् के लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि उनके लिये संसार (आवागमन) लम्बा है। इसी वर्ग में सांसारिक उन्नति और परमार्थ के मार्ग की विभिन्नता बतलाते हुए कहा गया है लाभ का मार्ग दूसरा है
और निर्वाण को ले जाने वाली दूसरी, इसे जानकर बुद्ध का अनुयायी भिक्षु सत्कार का अभिनन्दन नहीं करता, बल्कि एकान्तचर्या को बढ़ाता है। ‘पंडितवग्ग ' (वर्ग ६) में वास्तविक पंडित परुषों के लक्षण बतलाये गये हैं। जो अपने लिए या दूसरों के लिये पुत्र, धन और राज्य नहीं चाहते, न अधर्म से अपनी उन्नति चाहते हैं, वहीं सचाचारी पुरुष, प्रज्ञावान् और धार्मिक हैं। अरहंत वग्ग (वर्ग ७) में बड़ी सुन्दर काव्य-मय भाषा में अर्हतों के लक्षण कहे गये हैं। जिसका मार्ग-गमन समाप्त हो चुका है, जो शोक-रहित तथा सर्वथा मुक्त है, जिसकी सभी ग्रन्थियाँ क्षीण हो गई हैं, उसके लिये सन्ताप नहीं है। सचेत ही वह उद्योग करते हैं। गृह-सुख में रमण नहीं करते। हंस जैसे क्षुद्र जलाशय को छोड़ कर चले जाते हैं, वैसे ही अर्हत गृह को छोड़ चले जाते हैं। जो वस्तुओं का संचय नहीं करते, जिनका भंजन नियत है, शून्यता-स्वरूप तथा कारण-रहित मोक्ष जिनको दिखाई पड़ता है, उनकी गति आकाश में पक्षियों की भांति अज्ञेय है। गाँव में या जंगल, नीचे या ऊँचे स्थल, जहाँ कही अर्हत् लोग विहार करते हैं, वही रमणीय भूमि है। सहस्सवग्ग (वर्ग ८) की मूल भावना यह है कि सहस्रों गाथाओं के सुनने से एक शब्द का सुनना अच्छा है, यदि उससे शान्ति मिले। सिद्धान्त के मन भर से अभ्यास का कण भर अच्छा है। सहस्रों यज्ञों से सदाचारी जीवन श्रेष्ठ है। पापवग्ग (वर्ग ९) में पाप न करने का उपदेश दिया गया है, क्योंकि ' न आकाश में, न
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