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'जोणि-पाहुड' प्राकृत भाषा का अब-तक ज्ञात प्रथम चिकित्सा ग्रन्थ है । यह अष्ठांग चिकित्सा पद्धति पर लिखा गया है और दो भागों में विभक्त है । प्रारम्भ के प्रथम भाग में प्रशस्ति भी है । प्रथम जोणिपाहुड ग्रन्थ में ३३३ गाथाएं हैं और द्वितीय ग्रन्थ में ६१६ गाथाएँ हैं । द्वितीय की प्रारम्भिक १८७ गाथाएँ पाण्डुलिपि में नहीं हैं । इस ग्रन्थ ही सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें रचनाकार ने अधिकार की सूचना देने के बाद उनसे सम्बन्धित रोगनिदान की औषधियों का विवेचन किया है । शिशु रोग से लेकर शल्य क्रिया तक का भी कहीं कहीं विवेचन है । औषधी के अतिरिक्त रचनाकार ने शारीरिक आसन आदि का प्रयोग करने का भी विधान किया है । मंत्र-तंन्त्र एवं धर्म का भी क्वचित प्रयोग है । द्वितीय ग्रन्थ में स्वतन्त्र अधिकार का संकेत नहीं है , परन्तु जिन रोगों का विधान प्रस्तुत किया गया है, वह विस्तार को लिए उस विषय को स्पस्ट करता है। चिकित्सा पद्धति - प्राकृत साहित्य में अष्टांग आयुर्वेद का उल्लेख है ।
कोमार-तणुतिगिंछा- रसायण-विस-भूद-खार-तंतं च ।
सालंकियं च सलं तिगिंछदो सो दु अट्टविहो ।- मूलाचार ४५२।। १. कोमार- कौमारभृत्य (शिशुचिकित्सा) २. तणु- कायचिकित्सा (ज्वर, उदरशूल, शिरोवेदना, अतिसार आदि) ३. रसायण - (बल/शक्ति बढाने वाली चिकित्सा) ४. विष - विसतन्त्र ( विषघातक औषधि) ५. भूत- भूततन्त्र (भूत- प्रेत की औषधि)
क्षारतन्त्र - (निम्ब आदि के पत्तों द्वारा घाव को साफ करना) ___ शालकिय (शलाकाक्रिया) -शालाक्य (कर्ण आदि शरीर के उर्ध्वभाग अर्थात शिर के रोगों का
उपचार) ८. शल्य - शल्यचिकित्सा ( इन्जेकशन लगाना, आपरेशन करना)
इस प्राणावाद ग्रन्थ में चिकित्सा विज्ञान के आठ अंग उपर्युक्त रूप से नहीं गिनाए हैं, परन्तु स्वरतंन्त्र पर प्रकाश डालते हुए लिखा है -
भूदीकम्म - जंगुलिपक्कमाणा साहया परे भेया । ईडा-पिंगलादिपाणा पुढवी-आउग्गिवायुणं ॥ १०८॥
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