Book Title: Universal Values of Prakrit Texts
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Bahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan

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Page 253
________________ संयुत्त-निकाय में भी 'धम्मपद ' शब्द का प्रयोग धर्म-पदों के रूप में हुआ है और उससे यह और भी अच्छी तरह प्रमाणित हो जाता है कि बुद्ध के काल में ही उनके द्वारा उपदिष्ट गाथाओं का एक संकलन धर्म-पदों के रूप में विद्यमान था और भिक्षु उन्हें कण्ठस्थ करके अपने उपदेशों में प्रयुक्त करते थे। पियंकर-सुत्त में कहा गया है कि एक बार भिक्षु अनुरुद्ध (अनिरुद्ध) श्रावस्ती के जेतवनाराम में प्रातःकाल कुछ 'धम्मपदों' का पाठ कर रहे थे और उन्हें सुनने की आतुरता में एक स्त्री अपने शोर करते हुए पुत्र को चुप करती हुई कहती है, “ मेरे प्रियंकर ! चुप हो जा ! शोर मत कर । देख, यह भिक्षु धर्मपदों को पढ़ रहा है। यदि हम धर्मपदों को जानेंगे तो हमारा कल्याण होगा। इसी प्रकार संयुत्त-निकाय के ही सज्झाय-सुत्त में एक भिक्षु का उल्लेख आया है, जो पहले ‘धम्मपदों ' को पढ़ा करता था, परन्तु अधिक विकसित आध्यात्मिक अवस्था प्राप्त कर, अब उसने उनका पाठ करना छोड़ दिया है । यह पूछे जाने पर कि “ भिक्षु ! अब आप धर्मपदों का पाठ क्यों नहीं करते ?" पहले जब तक मुखे वैराग्य नहीं हुआ था, मैं धर्मपदों को पढ़ा करता था, अंगुत्तर-निकाय में भी हमें ज्ञात होता है कि एक बार भगवान् बुद्ध ने सप्पिनी या सप्पिनिका (वर्तमान पंचान, बिहार में) नदी के तीर पर स्थित एक परिव्राजकाराम में वहाँ के परिव्राजकों के समक्ष चार धर्मपदों का उपदेश दिया था। इस प्रकार धर्म के-बुद्ध के उपदेशों के-' पदों ' या गाथाओं को भिक्षु बुद्ध के जीवन-काल में कण्ठस्थ करते थे। आज जो 'धम्मपद ' हमें मिलता है, वह उन्हीं गाथाओं का मूल संकलन है। 'धम्मपद ' की कई गाथाओं के उद्धरण — निद्देस' और 'कथावत्थु ' में दिये गये हैं और ईसवी सन के आसपास की रचना — मिलिन्दपञ्हो ' में “भासितं पेतं भगवता देवतातिदेवेन धम्मपदे "(उन देवातिदेव भगवान् (बुद्ध) ने 'धम्मपद ' में ऐसा कहा है)" ऐसा कहते हुए दो विभिन्न स्थलों पर ‘धम्मपद ' की दो गाथाओं (३२वीं और ३२७वीं) को उद्धृत किया गया है । इस प्रकार बुद्द-वचन के रूप में धम्मपद की प्रतिष्ठा अत्यन्त प्राचीनकाल से चली आ रही है। धम्मपद में कुल मिलाकर ४२३ गाथाएँ हैं, जो २६ वर्गों में बंटी हुई हैं। इसके मुख्यतः चार संस्करण उपलब्ध हैं। सर्वप्रथम प्राकृत धम्मपद है। खोतन में खंडित खरोष्ठी लिपि में यह प्राप्त हुआ हैं। यह बिलकुल अपूर्ण अवस्था में है और यह नहीं कहा जा सकता कि इसका मौलिक स्वरूप क्या है। इस ग्रंथ का सम्पादन पहले फ्रेंच विद्वान् ई. सेना ने किया था। बाद में इसका सम्पादन डॉ.वेणीमाधव बडुआ तथा सुरेन्द्रनाथ मित्र ने किया। प्रस्तुत ग्रंथ में १२ अध्याय हैं, जिनकी अनुरूपता पालि-धम्मपद के साथ इस प्रकार है २ - प्राकृत धम्मपद पालि धम्मपद वर्ग-क्रम वर्ग-नाम और गाथाओं की संख्या इनके अनुरूप क्रम, नाम और गाथाओं की संख्या, जो पालि धम्मपद में पाई जाती है। मग-बग ३० २०. मग्ग-वग्ग १७ अप्रमाद-वग २. अप्पमाद-वग १२ ३. चित्त-वग (अपूर्ण) ३. चित्त-वग्ग ११ -211 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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