Book Title: Universal Values of Prakrit Texts
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Bahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan

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Page 254
________________ पुष-वग सहस-वग या पनित-वग या धमठ-वग बाल-वग ७ (अपूर्ण) ४. पुप्फ-वग्ग १६ ८. सहस्स-वग्ग १६ ६. पंडित-वग्ग १४ १९. धम्मट्ठ-वग्ग १७ ५. बाल-वग्ग १६ ११. जरा-वग्ग ११ १५. सुख-वग्ग १२ २४. तण्हा-वग्ग २६ २५. भिक्खु-वग्ग २३ २६. ब्राह्मण-वग्ग ४१ जरा-वग सुह-वग तष-वग भिक्षु-वग ७ (अपूर्ण) ४० ब्राह्मण-वग जिन वर्गो के नामों में समानता है, उनके भी क्रमों और गाथाओं की संख्या के सम्बन्ध में काफी असमानता है। अधिकतर पालि धम्मपद की अपेक्षा प्राकृत-धम्मपद के वर्गों में ही गाथाएँ अधिक हैं। इस गाथा-वृद्धि का कारण श्री भरतसिंह उपाध्याय ने बतलाया है कि धम्मपद की गाथाओं का संग्रह पूरे सुत्त-पिटक के ग्रंथों से ही किया गया है, अतः उनके चुनने में विभिन्न सम्प्रदायों के ग्रंथों में विभिन्नता आ गई है। अन्य संस्करणों के बारे में भी यही बात है। एक बड़ी विशेषता प्राकृत धम्मपद की भाषा के सम्बन्ध में यह है कि उसकी आश्चर्यचनक समानता अशोक के शाह-बाज़गढ़ी और मनसेहरा के अभिलेखों से है। इससे यही विदित होता है कि प्राकृत-धम्मपद उत्तरपश्चिम भारत या मध्य-एशिया की बोलचाल की भाषा में लिखा गया था। उसमें कुछ संस्कृतीकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है। धम्मपद का दूसरा संस्करण, जिसका भी स्वरूप अभी अनिश्चित ही है, उसका गाथा संस्कृत या मिश्रित संस्कृत में लिखा हुआ रूप है। इसका साक्ष्य हमें ' महावस्तु' से मिलता है, जो स्वयं गाथा-संस्कृत में लिखी हुई रचना है और जिससे ' धम्मपद ' का एक अंश मानते हुये ' सहस्र वर्ग ' (धर्मपदेषु सहस्रवर्गः) नाम २४ गाथाओं के समूह को उद्धृत किया है - तेषां भगवान् जटिलानां धर्मपदेषु सहस्रवगं भासति ‘सहस्रमपि वाचानां अनर्थपदसंहितानां, एकार्थवती श्रयो यं श्रुत्वा उपशाम्यति ' किन्तु वहाँ केवल १६ गाथाएँ हैं। महावस्तु ' में उद्धृत 'सहस्रवर्ग' के अतिरिक्त गाथा संस्कृत में लिखे धर्मपद के पूरे स्वरूप के बारे में हमें कुछ अधिक ज्ञान नहीं है। धम्मपद के ' च ह-खि-उ-थिङ्' नामक चीनी अनुवाद से जो २२३ ई. में किया गया था, यह अवश्य ज्ञात होता है कि उसका मूल प्राकृत धम्मपद था, किन्तु उसके भी आज अनुपलब्ध होने के कारण प्राकृत-धम्मपद के वास्तविक स्वरूप की समस्या उलझी ही रह जाती है। धम्मपद का तीसरा रूप विशुद्ध संस्कृत में है, जो अपने खंडित रूप में -212 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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