Book Title: Universal Values of Prakrit Texts
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Bahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
View full book text
________________
प्राकृत-हिन्दी खण्ड 22. प्राकृत और संस्कृत का अंतःसम्बन्ध
- प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, नईदिल्ली इसमें कोई संदेह नहीं कि आज के अंतर्विरोधों और विविध विसंगतियों के संकुल समय में जहाँ मूल्यों और नैतिक बोध का क्षरण होता दिखाई दे रहा है, वहाँ बाहुबली प्राकृत विद्यापीठ, श्रवणबेलगोला जैसी संस्थाएँ बची हुई आस्था और अर्थवत्ता की प्रतीक बन कर सक्रिय हैं। इस संस्था ने जिन जीवन मूल्यों का परिपालन और पोषण किया है, वे जैनदर्शन के अनेकांतवादी चिन्तन के अनुरूप हैं।
अनेकान्तवाद, स्याद्वाद या सप्तभंगीनय के सिद्धान्तों ने सापेक्षता, बहुलता और सांप्रदायिक संकीर्ण भेदभाव से उपर उठ कर, जीवन के बृहत्तर मूल्यों को घोषित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। आज विश्व को अनेकान्त के पीछे अन्तर्निहित जीवन बोध की नितान्त आवश्यकता है। इस जीवन बोध के द्वारा वर्तमान की असहिष्णुता और संकीर्णता का निराकरण तथा समाज में सामंजस्य और सौहार्द्र की स्थापना हो सकेगी तथा बहुलता और विविधता की सहज स्वस्थ संस्कृति का विकास हो सकता है। अनेकान्त पर आधारित विविध संस्कृत
और प्राकृत भाषाओं के पारस्परिक सम्बन्धों पर चर्चा यहाँ प्रस्तुत है। प्राकृत, संस्कृत में सतत संवाद
भारतीय भाषापरिवार में वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, पालि तथा प्राकृत ये भाषाएँ परस्पर इतनी अधिक संश्लिष्ट तथा घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध रही हैं कि इन्हें कहीं-कहीं तो अलग-अलग भाषाएँ माना ही नहीं गया, विशेष रूप से वैदिक और लौकिक संस्कृत तो एक ही भाषा है। संस्कृत और प्राकृत दोनों ही मूलतः जनसमाज में प्रचलित रही हैं, इन दोनों में संवाद की एक सतत और सुदीर्घ प्रक्रिया ने हमारे शास्त्रीय विमर्श और साहित्यिक परम्पराओं को सम्पन्न बनाया है।
यदि संस्कृत की चिन्तन परम्पराओं के साथ संवाद के कारण प्राकृतभाषा में दार्शनिक विमर्श पुष्ट हुआ, तो प्राकृत के साथ संवाद के क्रम में संस्कृत में लोक जीवन के काव्य और उसके विमर्श की प्रक्रिया उपक्रांत हुई। इसी तरह चरितलेखन, इतिहास रचना, छन्दशास्त्र, कविसमय, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, काव्यविधाएँ, कथानक रूढियाँ, आख्यान-उपाख्यान इन सब के पारस्परिक आदान-प्रदान के द्वारा संस्कृत, पालि और प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं का साहित्य सम्पन्न बना। ईसा की आरंभिक शताब्दियों में प्राकृत साहित्य ने संस्कृत काव्य परम्परा के समानान्तर अपनी स्वार्जित प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी। काव्य की विधाओं का विभाजन भाषा के आधार पर करते हुए अलंकार शास्त्र के लक्षणकार बताते आये हैं कि काव्य तीन प्रकार का होता है -संस्कृतकाव्य, प्राकृतकाव्य और अपभ्रंशकाव्य । काव्यशास्त्र के सुविदित आचार्य दण्डी ने छठी शती के आसपास प्रणीत अपने काव्यादर्श में प्राकृत साहित्य की परम्परा पर प्रकाश डालते हुए कहा है
- 180
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org