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प्राकृत जन-जन की भाषा नहीं रही तब उसका स्थान अपभ्रंश और नव्य भारतीय भाषाएँ लेने लगीं, तब प्राकृत की जो गाथाएँ जन-जन के कंठों का हार थी, उन्हें गाने और सुनने वाले कम होने लगे। ऐसी स्थिति का एक कारुणिक निरूपण वज्जालग्ग की इस गाथा में मिलता है
गाहा रुवइ वराई सिक्खिज्जंति गवारलोएहिं । कीरइ लुंच्च पलुच्चा जह गाइ मंद दोहेहि ॥
गाथा बेचारी रो रही है
गंवार लोग उसे नींच खरोंच देते हैं। जैसे कोई अनाडी
दूध दुहते समय गाय के थनों को ||
भरतमुनि कहते हैं कि कमल, अमल. रेणु, तरंग, लोल, सलिल आदि ऐसे ढेरों शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत दोनों में तत्सम रूप में ही प्रयुक्त होते हैं। अतएव प्राकृत की रचना में संस्कृत और संस्कृत की रचना में प्राकृत का समावेश हो जाता है।
प्राकृत की शब्द- सम्पदा :
पण्डित आचार्यों ने इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया है कि अनेक शब्द ऐसे भी हैं, जो मूलतः देशज या प्राकृत की अपनी सम्पदा या विरासत हैं, तथा उन्हें संस्कृत भाषा ने अंगीकार किया है। पण्डित जन दोहद शब्द की निरुक्ति दोहर्द से कर सकते हैं, परन्तु यह शब्द मूलतः प्राकृत का है, जिसे संस्कृत भाषा ने अपना लिया। यही स्थिति देवर जैसे शब्दों की भी है, जिनका संस्कृत रूप द्विवर बनाया जा सकता है, पर ये अपने प्राकृत रूप में ही संस्कृत के साहित्य में धडल्ले से प्रयुक्त होते आये हैं। हाला शब्द, जिसका प्रयोग कालिदास ने अपने मेघदूत में किया है (हित्वा हालामभिमतरसां रेवतीलोचनंकाम्--), मूलतः संस्कृत का न होकर प्राकृत का है, जो आज भी आधुनिक भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त होता आ रहा है।
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इन शब्दों के अतिरिक्त प्राकृत भाषा ने देशज शब्दों का जो भण्डार सुरक्षित रखा है, वह संस्कृत के क्लासिकी साहित्य में तो जगह नहीं बना सका, पर संस्कृत के कथासाहित्य में उसमें से अनेक शब्दों के अनेक मोती अपनी आभा झलकाते हुए दिखते हैं। शुक्रसप्तति, भरटकद्वात्रिंशिका जैसे संस्कृत कथा ग्रंथों में तो सैंकडों शब्दों का प्रयोग हुआ है, जो संस्कृत के नहीं हैं, पर इन संस्कृत कथाग्रंथों के प्रणेताओं ने उन्मुक्त भाव से उन्हें अपने साहित्य में स्थान दे दिया है। चंग, पोगंड आदि शब्द ऐसे ही हैं। संस्कृत में छविल्ल और प्राकृत में छइल्ल शब्द रसिक या सहृदय व्यक्ति के लिए आते हैं। अर्थान्तर के साथ छैल-छबीले या सौन्दर्यलोलुप व्यक्ति के लिए भी इनका प्रयोग हुआ है। छेक शब्द इनका समवर्ती है।
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