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११वी शताब्दी के महाकवि गोवर्धन ने गाहासतसई को आदर्श बना कर आर्यासप्तशती की रचना की। गोवर्धन ने स्वयं ही स्वीकार किया है कि जो रस की धारा प्राकृत कविता में सहज रूप से बह रही थी, उसे उन्होंने बलात् संस्कृत रचना में बाँधने का प्रयास किया है और यह प्रयास ऐसा ही है जैसे नीचे की ओर सहज गति से बह रही कलिंदकन्या यमुना को गगनतल की ओर ले जाना
वाणी प्राकृतसमुचितरसा बलेनैन संस्कृतं नीता।
निम्नानुरूपनीरा कलिन्दकन्येव गगनतलम् ॥ - आर्यासप्तशती-५२ यह गोवर्धन की विनम्रता ही है जो वे ऐसा कहते हैं। उन्होंने अपनी कवित्व प्रतिभा से सचमुच प्राकृत की लोक जीवन से जुडी रसमय धारा को संस्कृत का अंग बना दिया है।
पुआल का सारा ढेर इस बैल ने रोंद कर सत्यानाश कर दिया- यह समझ कर घर का मालिक (हलवाहा) बैल को पीटे जा रहा है और इधर हलवाहे की बहू और उसका देवर चोरी से एक दूसरे का मुँह ताकते हुए उसकी इस हरकत पर हँस रहे हैं। गाहासतसई की गाथाओं में कहीं-कहीं देवर भौजाई के बीच इस तरह के सम्बन्धों की चर्चा आती है। दूसरी ओर गाहासतसई में मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार की गृहिणियों के भी चित्र हैं, जो गोवर्धन की इस आर्या में उकेरे गये हैं। गाहासतसई परवर्ती भारतीय मुक्तक काव्य परम्परा की एक उपजीव्य कृति भी कही जा सकती है। इसके द्वारा हमारे अपने जीवन का सरस राग-रंग कविता के लय और छन्द में समा गया। एक गाथा में नायिका सखी से कहती है -
णीसासुक्कंपिअपुलएहिं जाणंति णच्चिउंधण्णा।
अम्हारिसीहिं दिट्टे पिअम्मि अप्पा वि वीसरिओ॥ वे धन्य हैं, जो साँस, कंपन और रोमांच से प्रिय को नचा लेती हैं, हम तो उन्हें देख कर अपने आप को ही भूल जाते हैं। बिल्कुल इसी भाव को संस्कृत कवि ने सुन्दर रूप में नायिका के इस कथन में सँजोया है
धन्यासि या कथयसि प्रियसंगमेऽपि विश्रब्धचाटुकशतानि रतान्तरेषुनीवी प्रति प्रणिहिते तु करे प्रियेण
संख्यः शपामि यदि किंचिदपि स्मरामि। गाहासतसई के गाथाओं में गाँव गिराँव के किसानों के जीवन व भारतीय गृहणियों के शील का अद्भूत और मार्मिक चित्रण हुआ है। एक दुर्गत या विपन्न परिवार के घर की यह झाँकी है
दुग्गयघरम्मि घरिणी रक्खंती आउलत्तणं पइणो। पुच्छिअदोहलसद्धा उययं चिय दोहलं कहइ ॥ (४५७)
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