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कुछ ऐसी भी लोकोक्तियाँ हैं, जिनसे महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी भी प्रभावित प्रतीत होते हैं। उदाहरणार्थ - किं तेल्लु विणिग्गइ वालुयहि-२३/७/१३ - क्या बालु से तेल निकल सकता है ? तुलना-तुलसी-वारि मथे घृत होइ वरु - माथे पर लिखे को कौन मिटा सकता है? सिकता तें वरु तेल को तं पुसइ णिडालइ लिहियउ २४/८/८ तुलसी-विधि का लिखा कौन मेटनहारा करयल कंतिहरु पंकेण पंकु किं धुप्पइ-७९/७/१४ - कीचड़ भरे हाथ से कहीं धूलि धुल सकती है ? तुलसी - छूटहि मल किं मलहि के धोए समकालीन संस्कृति एवं समाज
___ पुष्पदन्त-साहित्य का अध्ययन करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि अपनी काव्य-प्रतिभा से पुष्पदन्त जहाँ वर्ण्य-कथानकों को विविध अलंकारों से सजाकर विभिन्न रसों से पागकर उसे सरस, मधुर
और रंग-बिरंगा बना देते हैं, वहीं सीधी-सादी सरल भाषा-शैली का प्रयोग कर वे जन-जन के कवि होने का आभास भी करा देते हैं। उनकी सूक्ष्म-दृष्टि में जन-जीवन का शायद ही कोई पक्ष अपेक्षित रह पाया हो। जैसे
विवाह -
पारिवारिक जीवन में विवाह एक अत्यावश्यक कार्य है क्योंकि उसके बिना परिवार तथा समाज का विकास सम्भव नहीं। पुष्पदन्त भले ही अविवाहित रहे, किन्तु समाज एवं परिवार के मध्य रहकर वे उसकी आवश्यकता तथा उनकी विधियों को गम्भीरता से देखते रहते थे। उन्होंने स्वयंवर की चर्चा तो नहीं की किन्तु यह अवश्य लिखा कि पिता अपनी कन्या की सहमति से उसका सम्बन्ध तय करता था तथा सपरिवार वह शुभ-लग्न देखकर वर के नगर के बाहिरी उद्यान में पहुंच जाता था। वर-पक्ष की ओर से उसके रुकने की सुविधा सम्पन्न व्यवस्था कर दी जाती थी (जस. १/२६) । विवाह-मण्डप उत्तुंग एवं भव्य बनाया जाता था। सुसज्जित मंच पर वर-वधु को बैठाया जाता था (तिसट्ठिमहा. २७/६)। सजे-धजे घोडे पर उसे बैठाकर नगर-परिक्रमा कराई जाती थी। विविध वाद्यों की ध्वनि से आकाश गूंज उठता था । कभी-कभी रत्न-जटित-शिविका में बैठाकर भी वर को घुमाया जाता था। वर के मित्रगण नाचते-गाते हुए चलते थे (तिसट्टिमहा. ८८/२३/१४)। विवाह-संस्कार के समय हवन भी होता था। वर जब कन्या का हाथ अपने हाथ में लेता था, तब उपस्थित लोग वधाई-वधाई का उद्घोष करते थे। वर का पिता कन्या को अँगूठी पहिनाता था (जस. १/२५/२५-२६) विवाह-स्थल पर मंगल-कलश की स्थापना की जाती थी। वर-कन्या के घृत-लेपन करने की प्रथा थी। नृत्यांगनाएँ कलापूर्ण नृत्य कर सबका मनोरंजन किया करती थी।"
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