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अन्तरात्मा
अक्खाणि बहिरप्पा, अंतरप्पा हु अप्पसंकपो । कम्मकलंक - विमुक्को, परमप्पा भण्णए देवो ॥
अपरिग्रहमुच्छा परिग्गहो वृत्ती
अभंतरबाहरिए सव्वे गंथे तुमं विवज्जेहि
वितेण ताणं न लभे पमत्ते
परिग्गहनिविट्ठाणं वेरं तेसिं पवड्ढई ||
सव्वत्थ अप्पवसिओ णिस्संगो णिव्भओ य सव्वत्थ
अभय दान
जं की रइ परिरक्खा, णिच्चं मरण - भयभीरु - जीवाणं । तं जाण अभयदाणं, सिंहामणि सव्वदाणाणं
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अभोगी
भोगी भइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ।
अरहंत
ससरीरा अरहंता, केवलणाणेण मुणिय-सयलत्था । पाणसरीरा सिद्धा, सव्वुत्तम सुक्ख-संपत्ता 11
अस्तेय (अचौर्य) -
वज्जिज्जा तेनाहs - तक्करजोगं विरुद्धरज्जं च । कूडतुलकूडमाणं तप्पडित्वं च ववहारं ॥
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इन्द्रिय समूह को आत्मा के रूप में स्वीकार करने वाला बहिरात्मा है । आत्म संकल्प - देह से भिन्न आत्मा को स्वीकार करनेवाला अन्तरात्मा है। कर्म कलंक से विमुक्त आत्मा परमात्मा है ।
मूर्च्छा-ममता भाव परिग्रह है ।
भीतर और बाहर की सम्पूर्ण ग्रन्थियों के उन्मोचन का नाम अपरिग्रह है ।
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मनुष्य धन से अपनी रक्षा नहीं कर सकता ।
परिग्रह में फँसे हुए हैं, वे बैर को बढ़ाते हैं । परिग्रह से रहित व्यक्ति स्वाधीन और निर्भय रहता है ।
मृत्युभय से भयभीत जीवों की रक्षा करना ही अभयदान है । यह अभयदान सब दानों का शिरोमणि है ।
भोगी जन्ममरण के चक्र से नहीं छूटता । अभोगी मुक्त हो जाता है ।
केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को जाननेवाले स- शरीरी जीव अर्हत हैं तथा सर्वोत्तम सुख (मोक्ष) को संप्राप्त ज्ञान- शरीरी जीव सिद्ध कहलाते हैं ।
अचर्यव्रती श्रावक को न चोरी का माल खरीदना चाहिये, न चोरी में प्रेरक बनना चाहिये । न ही राज्य विरुद्ध अर्थात् कर आदि की चोरी व नियम विरुद्ध कोई
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