Book Title: Tirthankar Mahavira Smruti Granth
Author(s): Ravindra Malav
Publisher: Jivaji Vishwavidyalaya Gwalior

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Page 373
________________ थी, बल्कि भारत के बाहर भी वे फैले हुए थे।" सन् शती में गोपाचल क्षेत्र में जैन धर्म का क्रमबद्ध 648 में हर्ष की मृत्यु हो गई और पुनः एक बार इस विकास प्रारम्भ हो गया था। कन्नौज के प्रतापी यशोक्षेत्र में अराजकता जैसी स्थित निर्मित हो गई। वर्मन के पुत्र आम ने गोपाचल गढ़ को सन् 750 ई. में अपनी राजधानी बनाया था। आम ने वप्पभट्ट सूरि ग्वालियर के दो शैलोत्कीर्ण शिल्पांकन भी का शिष्यत्व ग्रहण किया था। जैन प्रबन्धों के अनुसार इसी काल के अंत की ही रचनाएँ प्रतीत होती। आम नामक नरेश ने जो नौ वीं शताब्दी में कन्नौज और हैं। इनमें से एक प्रतिमा में तीर्थ कर को कायोत्सर्ग । ग्वालियर पर शासन करता था कन्नौज में एक मन्दिर मुद्रा में तथा दूसरी को पद्मासनस्थ ध्यानमुद्रा में का निर्माण कराया था, जो 100 हाथ ऊँचा था और अंकित किया गया है। पद्मासन-मूद्राबाले तीर्थकर के। जिसमें उसने तीर्थकर महावीर की स्वर्ण प्रतिमा पार्श्व में अंकित सेवक पूर्ण विकसित कमल पुष्पों पर स्थापित करायी थी। उसने ग्वालियर में 23 हाथ खड़े हुए हैं। इन कमल पुष्पों को बौने (वामन) लोगों ऊँची महावीर की प्रतिमा स्थापित की थी। यह भी ने थाम रखा है, जो स्वयं मोटे कमलनाल जैसे दिखाई कहा जाता है कि उसने मथुरा, अनहिल वाड़, मोढ़ेरा देते हैं। ऐसा ही लम्बी तालयुक्त कमल पुष्पों पर आदि में भी जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था। खड़े यक्षों का अंकन मथुरा संग्रहालय की (बी 6 तथा जैन परम्पराओं में उल्लिखित नरेश आम प्रतिहार नागबी 7 क्रमांकित) दो सुन्दर मूर्तियों में भी पाया जाता भटट द्वितीय (मत्यु 883 ई.) रहे होंगे, जो जैन धर्म के है। खड़गासन तीर्थ कर-प्रतिमा के मूर्तन की तुलना प्रति अपनी आस्था के लिये प्रसिद्ध रहे हैं। इस जैन राजगिरि की वैभार पहाड़ी स्थित दो खड्गासन प्रति परम्परा की सत्यता इन स्थानों से प्राप्त मध्यकालीन माओं के मूर्तन से की जा सकती है । ग्वालियर की जैन अवशेषों द्वारा प्रमाणित होती है । इन दोनों तीर्थ कर प्रतिमाओं में गृप्त-शैली का अनुकरण किया गया है। सेवक अलंकृत टोपी जैसे मुकट तथा ग्वालियर के किले में अंबिका यक्षी और गोमेद गले में एकावली धारण किये हुए हैं। तीर्थ करों का यक्ष की शैलोत्कीर्ण सपरिकर प्रतिमाएँ उपलब्ध हैं। परिकर परवर्ती गुप्तकालीन प्रतिमाओं की भाँति ललितासन में बैठी अंबिका के पावं में, उनकी सेबिकाएँ सुसज्जित न होकर यहाँ भी सादा रहा ।' हैं। इन प्रतिमाओं का निर्माणकाल लगभग आठवीं शताब्दी निर्धारित किया जाता है। ये प्रतिमाएँ आठवीं शती के सम्बन्ध में उपलब्ध ऐतिहासिक भारी आकार और रचना सौष्ठव के लिये विशेष प्रमाणों से से इस बात की पुष्टि होती है कि आठवीं उल्लेखनीय हैं, तथा कुषाण एवं गुप्तकालीन पांचिक 2. ट्रेवेल्स आफ हुएनसांग, पृष्ठ 2241 3. जैन कला एवं स्थापत्य, खण्ड 1; भाग 3 (वास्तु स्मारक एवं मूर्तिकला) (300 से 600 ई.), अध्याय 12 (मध्यभारत)-डा. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह । 4. प्रबन्ध कोष, पृष्ठ 27; प्रभावक चरित, पृष्ठ 99 । 5. मजूमदार (आर. सी.) तथा पुसालकर (ए. डी.) सम्पादक-एज आफ इम्पीरियल कन्नोज, 1955, बम्बई, पृष्ठ 2891 6. वन (क्लास) जिन इमेजेज आफ देवगढ़, 1969, लीडन, चित्र 18-18 A | ३३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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