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रूप में बने आसन के.मध्य पदमासन के नीचे सामने जीर्ण-शीर्ण अवस्था में स्थित 35 फुट लम्बे तथा 15 की ओर तीर्थ कर पद्मप्रभ का लांछन कमल व प्रतिमा फुट चौड़े खंडहर कमरे के संबंध में किये गये शोधके शीर्ष पर ऊष्णिस एवं घुघराले बाल दृष्टव्य हैं। कार्य के आधार पर उसे जैनियों के 23वें तीर्थकर
पार्श्वनाथ का मन्दिर माना है, और इसका निर्माणदूसरी प्रमुख प्रतिमा आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ की
कार्य सन् 1108 ई. के लगभग सम्पन्न होना माना है। है । कुल साढ़े दस इंच ऊँची इस प्रतिमा में तीर्थ कर
उसके पूर्ण सर्वेक्षण, आसपास किये गये खुदाई के कार्य मुद्रा मात्र ही साढ़े पांच इंच ऊँचाई की है। सम्प्रयक
और स्तम्भों के आधार पर उसका क्षेत्र पीछे 50 फुट में भद्रासन अवस्था में बैठी मुद्रा की इस जिन प्रतिमा के
और होना बताया है। उसके अनुसार यह मन्दिर पृष्ठ भाग में नालन्दा जैसी उन्नत कला दर्शनीय है।
लगभग 69 फीट लम्बे तथा 15 फीट चौड़े क्षेत्र में प्रतिमा के पृष्ठ भाग में प्रभामण्डल कलात्मक स्वरूप लिये।
फैला था। हुए है । प्रतीक स्वरूप तीर्थकर चन्द्रप्रभ का लांछन अर्द्धचन्द्र तथा वक्ष के मध्य श्रीवत्स का चिन्ह अंकित
इसके निर्माण का समय (सन् 1108 ई.) इस बात है। इनकी शैली के आधार पर सुनिश्चित रूप से इनका की साक्षी देता है कि यह मन्दिर कछवाहों के शासन काल निर्माण काल 10-11वीं शती कहा जा सकता है। में ही निर्मित किया गया। इससे इस बात पर प्रकाश
कच्छपघात बज्रदामन ने भी जैन सम्प्रदाय को पड़ता है कि इनके शासन काल में भी जैन अच्छी प्रश्रय दिया था। वि. सं. 1034 (सन 977 ई.) में अवस्था में थे। विस्तृत ऐतिहासिक विवरण के अभाव वज्रदामन के राज्यकाल में ग्वालियर में जैन मतियों में यह कहना अत्यंत कठिन है कि किस राजा ने दुर्ग पर की स्थापना की गई थी।
इस मन्दिर का निर्माण करवाया अथवा निर्माण हेतु
स्वीकृति प्रदान की। इससे भी यह प्रतीत होता है कि इसके इस प्रकार यह निश्चित है कि 11वीं शताब्दी में भी शताब्दियों पूर्व से जैन इस क्षेत्र में अपना अस्तित्व एक जिन मन्दिर तथा कुछ जैन मूर्तियाँ गोपाचगलढ़ पर रखते थे और शनैः-शनैः वे इतने प्रभावशाली हो गये निश्चय ही स्थित थीं। कच्छपघात मूलदेव (भुवनैकमल्ल) कि वे शासक एवं शासन को भी प्रभावित कर मन्दिर के राज्य में राज्याधिकारियों ने इस मन्दिर में जैन भक्तों निर्माण करा सके । का निर्वाध प्रवेश बन्द कर दिया था । मलधारी गच्छ के
, इस काल के ग्वालियर के निकटवर्ती क्षेत्रों में भी जैन श्री अभयदेव सूरि के आग्रह पर महावीर स्वामी के
मूर्तियों व शिलालेखों का निर्माण हुआ। दूबकुण्ड (श्योपुर) इस मन्दिर के द्वार समस्त जैन जनता के लिये उन्मुक्त
के वि. सं. 1145 (सन् 1088 ई.) के विक्रमसिंह के कर दिये गए थे।
शिलालेख से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र के कच्छपघात सन 1844 ई. में जनरल कनिंघम ने ग्वालियर भी जैन सरियों को प्रश्रय देते थे। शान्तिषेण सरि और दुर्ग पर स्थित सास-बह के मन्दिरों के निकट अत्यन्त उनके शिष्य विजयकीर्ति द्वारा वह प्रशस्ति लिखी गयी
11. ग्वालियर राज्य अभिलेख, क्र. 20 । 12. संगीतोपनिषत्सार, गायकवाड़ ओरियन्टल सीरिज, प्रस्तावना, पृष्ठ 7 ।
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