________________
तया सम्मानित था। और शत्रुओं का मान मर्दन करने चारों ओर जैन प्रतिमाओं के खुदवाने का कार्य प्रारम्भ में दक्ष था 12" युद्ध-स्थल में उसके समान कोई वीर कर दिया। इन अभिलेखों में जैनाचार्य देवसेन, योद्धा नहीं था। नरवर गढ़ में स्थित विजय स्तम्भ यशकीति, जयकीति, आदि भट्टारकों का भी उल्लेख (जैत स्तम्भ) अभी भी इसकी साक्षी दे रहा है। मिलता है। इस कार्य पर करोड़ों रुपये व्यय हुए
तथा कुल 33 वर्ष का समय लगा। डू'गरसिंह अपने परन्त इन सब विजय अभियानों में व्यस्त रहते हुए जीवनकाल में इसे पूरा नहीं करा सका। तब उसक भी उसका ध्यान विद्वानों, धार्मिक समारोहों और
प्रिय पुत्र कीर्तिसिंह ने उसे पूरा कराया। निर्माणों की ओर भी गया। इसने जैन धर्म के सिद्धांतों को अपने जीवन में अपनाया । जैन धर्म से उसका अनुराग डूंगरसिंह के राज्य में अन्य निर्माण और मूति प्रतिष्ठा मात्र ही नहीं था किन्तु उस पर उसकी परम आस्था थी। वे जैन धर्म के प्रबल पोषक थे। वह जैन विद्वानों
मूर्ति निर्माण के अतिरिक्त राजा डूंगरसिंह के समय एवं संतों को बड़े ही आदर की दष्टि से देखता था। में ग्वालियर के जैन धर्मानुयायी श्रावकों ने ग्रन्थ निर्माण
__और मूर्ति प्रतिष्ठा का भी कार्य सम्पन्न कराया। सन् इसके राज्यकाल में ही ग्वालियर गढ़ की चट्टानों 1429 में म. गुणकीर्ति के शिष्य भ. यशकीर्ति ने आत्म में जैन प्रतिमाओं के उत्खनन के कार्य का प्रारम्भ हुआ। पठनार्थ, "सुकुमाल चरित".3 और कवि श्रीधर की सन् 1440 ई. के तीन शिलालेख इस बात के सूचक हैं "संस्कृत भविष्य दत पंचमी" कथा की प्रतियाँ लिखकि इनके आश्रय में अनेक जैन धर्मावलम्बियों ने दुर्ग के वाई थीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने हरिवंश पुराण,
21. श्री तोमरानुर्काशखामणित्वं, यः प्रापभूपालशताचितांघ्रिः।। श्री राजमानो हतशत्रुमानः ।, श्री डूंगरेदोऽत्र, नराधिपोस्ति ।।
समयसार लिपि प्र० सेनगण भण्डार, कारंजा ................ भुपबल पराणु, समरंगणि अण्णु ण तहु समाणु । णिरुवम अविरल गुण मणि णिकेउ, .............. । साहणसमुदु जयसिरिणिवासु, जस ऊयरि पउरियदहदिसासु । जस करवाल णिहाएं अरि-कवाल, तोडि वि धल्लिउ णं कमलणालु । दुपिच्छ मिच्छ रणरंगु मल्लु, अरियणकामिणिमण दिण्ण सल्लु ।
.. सम्मतत्तगुणनिधान प्रशस्ति 23. -सवत् 1468 वर्ष अश्वणि वदि 13 सोमदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूंगरसिंहथेव देवविजयराज्य
प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघे माथुरान्चये आचार्य श्री भावसेन देवास्तत्पट्टे श्री सहस्त्रकीति देवास्तत्पट्टे श्री गुणकीर्ति देवास्तशिष्येन श्री यशः कीतिदेवन निजज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं सुकमाल चरित
लिखापितं । कीयस्थ याजनापुत्र थलू लेखनीयं । ...... जयपुर भण्डार । 24. संवत् 1486 वर्ष आषाढ़ वदि 9 गुरुदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूंगरसिंह राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघ
माथुरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्री सहस्त्रकीर्ति देवास्तत्पट्टे आचार्य गुणकीर्ति देवास्तच्छिष्य यश:कीति देवास्तेन निजज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं भविष्यदत्त पंचमी कथा लिखापितं ..... नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली
३४६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org