Book Title: Tirthankar Mahavira Smruti Granth
Author(s): Ravindra Malav
Publisher: Jivaji Vishwavidyalaya Gwalior

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Page 382
________________ उनके अतिरिक्त ज्ञानार्णव, चन्द्रप्रभू चरित्र तथा परिमाल यह जैन धर्म में अत्याधिक आस्था रखता था । कवि आगरा द्वारा श्रीपाल चरित्र आदि लिखे गये। सं. इसने अपने पिता द्वारा अधरे छोड़े गये मूर्तियों के 1497 और सं. 1510 में प्रतिष्ठापित मूर्तियों के लेख उत्खनन के कार्य को पूरा कराया। इसका काल सं. उपलब्ध हैं । 1522 से 1531 तक मिलता है। इस काल में अनेकों नई मूर्तियां भी प्रतिष्ठित हुई, जिनमें अकित लेखों में शाह टोडरमल जी, दोल जी काशलीवाल भी उनके कीर्तिसिंह का उल्लेख मिलता है। उदाहरणार्थ-बाबा काल में ही मारवाड़ से ग्वालियर आये थे। उस समय की बाबड़ी के दाहिनी ओर बनी पार्श्वनाथ की मूर्ति तोमर व कछवाय जैन मत पालते थे। उन्होंने पहाड़ी पर लिखे अभिलेख में महाराजा कीर्तिसिंह का विवरण पर गुफा व जैन मन्दिर के निर्माण भी कराये। दिया है। इस खड़गासन मुर्ति के निकट ही नौ अन्य वे जैनधर्म से बड़ा प्रभावित थे । तत्कालीन मूर्तियाँ भी खुदी हैं जिनमें कुछ पदमासन भी हैं। इनके भ. गुणकीति के प्रति इसके हदय में असीम श्रद्धा थी। मुख खंडित कर दिये गये हैं। उनके उपदेशामत से इसने जैन धर्म स्वीकार किया। ___इन मूर्तियों का निर्माण मूर्तिकला के क्षेत्र में इस इस काल में गुणकीर्ति उनके शिष्यों तथा प्रशिष्यों का प्रदेश के कारीगरों का अभिनव प्रयास था जिसके भी जैन धर्म एवं जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में अन्तर्गत वि. सं. 1530 तक के 33 वर्ष के थोड़े समय सर्वाधिक योगदान रहा । इसके काल में अनेकों मूर्तियों में ही दुर्ग की ये बेडोल और मूक चट्ट ने विशालता, का निर्माण हआ तथा प्रतिष्ठायें करवाई गई। इसके वीतरागिता, शान्ति, एवं तपस्या की भाव व्यंजना से काल में प्रजा सुखी तथा समृद्ध थी। इसने कुल 30 वर्ष मुखरित हो उठीं। गढ़ के चारों ओर खदी हुई इन तक ग्वालियर पर शासन किया। विशाल मूर्तियों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इन इसके पश्चात कीतिसिंह या कीर्तिपाल गट्टी पर बैठा। मूतियों के निर्माणकर्ता अपनी श्रद्धा और भक्ति के अनुकल विशाल प्रतिमाओं का निर्माण करना अथवा यह डूंगरसिंह का पुत्र था। यह अपने पिता के समान कराना चाहते होंगे । अतः इससे प्रेरित होकर उत्कीही गुणज्ञ, बलवान और राजनीति में चतुर था । यह र्णकों ने निर्मापक की निर्मल भावनाओं को साकार रूप पराक्रमी होने के साथ-साथ दयालु, सहृदय और प्रजा वत्सल भी था। इसने लगभग सन 1424 में शासन प्रदान करने के उद्देश्य से उस विशालता में सौन्दर्य का भार ग्रहण किया। और समावेश कर कला की अपूर्व कृतियों का निर्माण किया। प्रतिमाओं के ये समह दुर्ग के विभिन्न अंचलों इसने अपने राज्य को और भी बढ़ाया। इसके में बने हैं जो गुहा मन्दिरों के नाम से जाने जाते हैं । समय के दो लेख 1468 और 1473 ई. के मिले हैं। ये असंख्य छोटे-बड़े मन्दिर संख्या और आकार की दष्टि इसकी मृत्यु सन् 1479 में हुई थी अत: इसका से उत्तर भारत में अद्वितीय हैं । मूर्तिकला और मन्दिर राज्यकाल 1479 तक माना जाता है। स्थापत्य दोनों में अद्भुत सामंजस्य स्थापित है। सबसे 29. देखो जनरल एशियाटिक सोसाइटी, भाग 31,प. 423 गोपाचल दुर्गे तोमरवंशे राजा श्री गणपति देवास्त पुत्रों महाराजाधिराज श्री डूंगरसिंह राज्ये (प्रतिष्ठितं) चौरासी मथुरा की मूलनायक मूर्ति का लेख । कवि रईधू-श्रीपाल चरित्र 31. समयसार लिपि, प्र० शास्त्र भन्डार, कारंजा। 30. ३४% Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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