Book Title: Tirthankar Mahavira Smruti Granth
Author(s): Ravindra Malav
Publisher: Jivaji Vishwavidyalaya Gwalior

View full book text
Previous | Next

Page 427
________________ लेखक परिचय उपाध्याय श्री अमरमुनि जी प्रतिष्ठित जैनाचार्य, आध्यात्मिक सन्त । प्रखरवक्ता एवं चिन्तक, भावनात्मक कवि । जैन धर्म एवं दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान । अनेकों भाषाओं के ज्ञाता। श्रमण संस्कृति के प्रचारक एवं तदर्थ समर्पित । अनेकों काव्य रचनाएं प्रकाशित । अनेकों पुस्तकों के रचयिता । आचार्य श्री तुलसी जी आध्यात्मिक सन्त एवं वक्ता । प्रतिष्टित, जैनाचार्य, अनुशास्ता, प्रखर चिन्तक । अणुव्रत धर्म के प्रचारक एवं इसके माध्यम से राष्ट्र एव मानव मात्र के कल्याणार्थ, नैतिक चरिय निर्माण के महान यज्ञ में संलग्न एवं तदर्थ समर्पित । अनेकों भाषाओ के ज्ञाता । जैन धर्म एवं दर्शन का विषद अध्ययन । अनेकों धर्म ग्रन्थों व पुस्तकों के रचयिता, सम्पादक, अनुवादक एवं प्रेरक । सन्तों की प्रतिष्टित परम्परा । संघ के सहयोगी सन्तों के प्रेरक । संघ के द्वारा जैन आगम ग्रन्थों के सम्पादन, अनुवाद, एव प्रकाशन का एतिहासिक कार्य । उपाध्याय मुनि विद्यानन्द जी संत प्रबर, प्रखर अध्येता, चिन्तक, लेखक एवं वक्ता । श्रमण संस्कृति के समन्वयकारी उन्नायक, विश्वधर्म के प्रणेता । दक्षिण भारत के शडव ल (वेल ग्राम) में एक सम्पन्न परिवार में जन्म : दिनांक 22 अप्रैल 1922 ई० । श्री 108 मुनि शांत सागर विद्यालय शेडवाल में अध्ययन, तदुपरान्त वहीं आचार्य-प्रधनाचार्य । 1942 की जनक्रान्ति में कारावास यात्रा । तयोमूति श्री 108 आचार्य महाकोति महाराज में ब्रह्मचर्य दीक्षा, साधनारत रहकर पार्श्व कीति नाम से अल्लक अवस्था में दीक्षित, 25 जुलाई 63 को श्रद्धेय श्री 108 आचार्य देशभुषणजी महाराज की प्रेरणा से परम दिसम्बर मुनिवर्म में दीक्षित होकर मुनि विद्यानन्दजी महाराज के नाम से विभूषित । बद्रीनाथ व जोगीमठ जमे दुर्गमतम स्थानों सहित देश के सुदुर क्षेत्रों में दिगम्ब रत्व स्वरूप में पदयात्रा कर श्रमण संस्कृति का प्रसार किया। संस्कृत हिन्दी, कन्नड, मराठी, अंग्रेजी, तामिल, गुजराती भाषाओं एवं संगीत में निपूण । अनेको ग्रन्थों एवं पुस्तकों के रचयिता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448