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तब रूप-अरूप तथा सुख-दुःख से छूट जाता है। उदान का अभाव है। लेकिन जिस प्रकार रोग का अभाव, का यह वचन हमें गीता के उस कथन की याद दिला अभाव होते हए भी सद्भुत है, उसे आरोग्य कहते हैं देता है, जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं जहाँ न पवन बहता है, उसी प्रकार तृष्णा का अभाव भी सद्भूत है उसे सुख न चन्द्र सूर्य प्रकाशित होते हैं, जहाँ जाने पर पुन: इस कहा जाता है। दूसरे उसे अभाव इसलिए भी कहा संसार में आया नहीं जाता वही मेरा (आत्मा का) परम जाता है कि साधक में शाश्वतवाद की मिथ्या दृष्टि भी धाम (स्वस्थान) है।
उत्पन्न नहीं हो । राग का प्रहाण होने से निर्वाण में मैं बोद्ध निर्वाण की यह विशद विवेचना में हम (अत्त) और मेरापन (अत्ता) नहीं होता इस दृष्टिकोण निष्कर्ष पर ले जाती है कि प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन का
के आधार पर उसे अभाव कहा जाता है। निर्वाण राग निर्वाण अभावात्मक तथ्य नहीं था। इसके लिए निम्न
का अहं का पूर्ण विगलन है। लेकिन अहं या ममत्व तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं :
की समाप्ति को अभाव नहीं कहा जा सकता । निर्वाण
की अभावात्मक कल्पना 'अनत' शब्द का गलत अर्थ (1) निर्वाण यदि अभाव मात्र होता तो वह ततीय समझने से उत्पन्न हई है। बौद्ध दर्शन में अनात्म आर्य सत्य कैसे होता? क्योंकि अभाव आर्यचित का (अनत्त) शब्द आत्म (तत्व) का अभाव नहीं बताता आलम्बन नहीं हो सकता ।
वरन् यह बताता है कि जगत में अपना या मेरा कोई
नहीं है, अनात्म का उपदेश असक्ति के प्रहाण के लिए, (2) तृतीय आर्य सत्य का विषय द्रव्य सत नहीं
तृष्णा के क्षय के लिए है, निर्वाण 'तत्व' का अभाव है तो उसके उपदेश का क्या मूल्य होगा ?
नहीं वरन् अपनेपन या अहं का अभाव है। वह (3) यदि निर्वाण मात्र निरोध या अभाव है तो
वैयक्तिकता का अभाव है, व्यक्तित्व का नहीं। उच्छेद दृष्टि सम्यक दृष्टि होगी लेकिन बुद्ध ने तो सदैव
अनत्त (अनात्म) वाद की पूर्णता यह बताने में है कि ही उच्छेद दृष्टि को मिथ्या दृष्टि कहा है।
जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मेरा या अपना
कहा जा सके । सभी अनात्म है। इस शिक्षा का सच्चा (4) महावान की धर्म काय की धारणा और अर्थ यही है कि मेरा कुछ भी नहीं है। क्योंकि जहाँ
ता तथा विज्ञानवाद के मेरापन (अत्त भाव) आता है वहाँ राग एवं तृष्णा का आलय विज्ञान की धारणा निर्वाण की अभावात्मक उदय होता है। स्व पर में अवस्थित होता है, आत्म व्याख्या के विपरीत पड़ते हैं। अतः निर्वाण का तात्विक दृष्टि (ममत्व) उत्पन्न होती है । लेकिन यही आत्म स्वरूप अभाव सिद्ध नहीं होता है। उसे अभाव या निरोध दृष्टि स्व का पर में अवस्थित होना अथवा राग एव कहने का तात्पर्य यही है कि उसमें वासना या तृष्णा तृष्णा की वृत्ति बन्धन है, जो तृष्णा है, वही राग है;
51. यस्थ आपो न पठवी तेजो वायो न गाधति ।
न तत्थ सुक्का जोवन्ति आदिच्चो न प्पकासति ।। म तस्थ चन्दिमा भाति तमो तत्थ न विज्जति । उदान १११० तुलना कीजिए-न तम्दासयते सूर्यों न शशांको न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। गीता १५६
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